इसका मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि ऐसे लोग एंजायटी से बचने के लिए लापरवाही करते हैं। वो कहीं न कहीं उस रियलिटी से बचना चाहते हैं, उसे आत्मसात नहीं करना चाहते। इसलिए हमें इन दोनों समूह के बीच रास्ता तलाशने की जरूरत है। जहां से हम बैलेंस बनाकर काम सकें और ज्यादा से ज्यादा लोग इससे जागरूक हो सकें। कोरोना काल में अगर भय और युद्ध जैसा माहौल होगा तो चेतना का अभाव भी होगा। एक ओर ये महामारी बहुत खतरनाक है, वहीं दूसरी ओर इससे बचने के लिए सिंपल मेजर इस्तेमाल करने हैं। हाथ धोना, मास्क पहनना और लोगों से दूर रहना है।
इसलिए लोगों के मन में सवाल होता है कि इतनी बड़ी महामारी इतने सरल साधन से कैसे ठीक हो सकती है। उनके मन में दोहरी मानसिकता पैदा होने लगती है। अगर बड़ी बीमारी है, तो उसके लिए मेजर्स बड़े होने चाहिए। वहीं वैक्सीनेशन को लेकर भी लोगों के मन में भ्रम है कि कहीं ये नुकसान तो नहीं करेगी। ये वैक्सीन फेक तो नहीं है। इसे लगवाने से कहीं कोरोना तो नहीं हो जाएगा।
अभी वैक्सीनेशन कार्यक्रम में सांसद-विधायकों की भूमिका तो सुनिश्चित की गई है, लेकिन पार्षद और सरपंच जैसे राजनेताओं को शामिल नहीं किया गया, जबकि स्थानीय स्तर पर इनका ज्यादा प्रभाव रहता है। यदि इन्हें भी जागरूकता कार्यक्रम से जोड़ा जाए तो बेहतर परिणाम देखने को मिलेंगे। इसके लिए हम सभी को एकजुट होना होगा।
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एक साथ होकर इस बीमारी से निपटेंगे तो परिणाम भी बहुत अच्छे आएंगे। उसके लिए पारिवारिक स्तर से ही इसकी शुरुआत करनी होगी। घर के मुखिया को यह बताना होगा कि हमें करोना वायरस से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क लगाना कितना जरूरी है। लोगों को अफवाहों से और गलत जानकारी से बचना होगा। सही सूचनाएं हासिल करें लोगों से चर्चा करें और वो करें जो आपदा में जरूरी है।