जब गड़बड़ाते हैं ये पांच दोष…
विशेषज्ञ बताते हैं कि आयुर्वेद के मुताबिक मनुष्य का शरीर 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से बना है, उन्हीं तत्वों से ब्रह्मांड भी बना है। जब शरीर में इन 5 तत्वों के अनुपात में गड़बड़ी होती है तो, दोष यानी समस्याएं पैदा होती हैं। गठिया, लकवा, पेट से जुड़े रोग, साइनस, माइग्रेन, सर्वाइकल, स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका, बीपी, डायबिटीज, लिवर संबंधी विकार, जोड़ों का दर्द, आंख और आंत की बीमारियां शरीर को घेर लेती हैं।
यह है खास चिकित्सा विधि
पंचकर्म को आयुर्वेद की खास चिकित्सा विधि माना जाता है। यह शरीर की शुद्धि (डिटॉक्सिफिकेशन) और पुनर्जीवन (रिजुविनेशन) के लिए उपयोग किया जाता है। इस चिकित्सा विधि से तीनों शारीरिक दोषों जैसे वात, पित्त और कफ को सामान्य अवस्था में लाया जाता है। इस विधि में शरीर में मौजूद विषैले पदार्थों को बाहर निकालकर शरीर का शुद्धिकरण किया जाता है। इसी से रोग निवारण भी हो जाता है। यह शरीर के शोधन की क्रिया है जो, स्वस्थ मनुष्य के लिए भी फायदेमंद है।
आयुर्वेद का सिद्धांत है कि रोग का इलाज करना और व्यक्तिके स्वास्थ्य को बनाए रखना। पंचकर्म चिकित्सा आयुर्वेद के इन दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वोत्तम है। इसीलिए सिर्फ शारीरिक रोग ही नहीं, बल्कि मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए भी पंचकर्म को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा माना जाता है। इसमें पांच प्रधान कर्म होते हैं लेकिन इन्हें शुरू करने से पहले दो पूर्व कर्म भी जरूरी हैं। ये हैं स्नेहन और स्वेदन। इन दो विभिन्न प्रक्रियाओं के जरिए शरीर में व्याप्त दोषों को बाहर निकलने लायक बनाया जाता है। प्रधान कर्म (काय चिकित्सानुसार) के अनुसार निम्न हैं…
1. वमन 2. विरेचन 3. आस्थापन वस्ति 4. अनुवासन वस्ति 5. नस्य
पंचकर्म विधि
पूर्व कर्म
स्नेहन-स्वेदन- ये दोनों प्रक्रियाएं पूर्व कर्म कहलाती हैं, जो कि पंचकर्म की प्रत्येक क्रिया से पहले आवश्यक रूप से की जानी चाहिए, इसके माध्यम से रोग उत्पादक दोषों को शरीर के अंगों से शिथिल कर कोष्ठ में लाया जाता हैं, कई बार अल्प दोष की स्थिति होने पर रोगी को केवल इन पूर्वकर्म से लाभ हो जाता है।
वमन कर्म- यह क्रिया प्रमुख रूप से कफ रोगों व वात कफ रोगों के लिए की जाती है। यस उर: प्रदेश, सिर, अस्थि संधिगत व श्लेष्म स्थानों में उत्पन्न विभिन्न कफ रोगों के संशोधन के लिए आवश्यक होता हैं।
विरेचन कर्म- यह क्रिया विकृत पित्त दोषों के लिए की जाती है, जिसमें मुख्य रूप से गुदा मार्ग से दोषों को निर्धारित मापदण्डों के तहत क्रमश: प्रवर, मध्यम, अवर के 30, 20 व 10 वेग लाकर रोगी को दोष मुक्त करवाया जाता है।
वस्ति कर्म- इस कर्म को आयुर्वेदीय वैज्ञानिकों ने आधी चिकित्सा कहा है। यह प्रमुख रूप से 80 प्रकार के वात रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। साथ ही इसके प्रमुख प्रकार आस्थापन, अनुवासन, कालवस्ति, क्रमवस्ति, योगवस्ति तथा मात्रावस्ति आदि का रोग व रोगीनुसार प्रयोग कर लाभ पहुंचाया जाता है।
नस्य– पंचकर्म की इस क्रिया के माध्यम से सिर में स्थित दोषों को नासा मार्ग से बाहर निकाल कर रोगी को लाभ पहुंचाया जाता है। इसके प्रमुख प्रकारों में नस्य, प्रतिमर्शनस्य, नावन, अवपीडऩ नस्य प्रमुख हैं। इसे रोग व रोगी अनुसार चयन कर उपयोग में लाया जाता है।
रक्त मोक्षण- पंचकर्म की इस विधा द्वारा शरीर में स्थित दूषित रक्त को बाहर निकाला जाता है, इसमें दोष व रोगी की प्रकृति के अनुसार जलौकावचरण, श्रृंग, अलावू आदि के माध्यम से दोष अनुसार चयन कर रोग को ठीक किया जाता है।
* आपके शरीर और दिमाग से विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं।
* स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।
* रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है।
* बढ़ती उम्र को रोक देता है।
* शरीर को आराम पहुंचाता है।
* पाचन क्रिया को मजबूत बनाता है।
* शरीर के ऊतकों में नई जान डालकर उन्हें युवा बनाए रखता है।
* वजन कम करता है।
नुकसान और सावधानियां
* पंचकर्म के दौरान गर्म पानी पीएं, गर्म पानी से नहाएं तथा अन्य काम करने के लिए भी गर्म पानी का ही इस्तेमाल करें।
* पंचकर्म क्रिया का लाभ लेने के दौरान फिजिकल रिलेशन शिप से बचें।
* इस दौरान दिन में सोना नहीं चाहिए।
* अधिक तापमान में जाने या रहने से बचना चाहिए।
* देर रात तक नहीं जागना चाहिए।
* मुश्किल से पचने वाले खाद्य पदार्थ नहीं खाने चाहिएं।
* अधिक तनाव से बचना चाहिए।
* इस दौरान व्यायाम भी नहीं करना चाहिए।
इस दौरान न लें पंचकर्म का इलाज
* मासिक धर्म के दौरान।
* स्तनपान कराने वाली महिलाएं।
* फेफड़ों के कैंसर के मरीज।
* एड्स पीडि़त लोग।
* बहुत अधिक मोटापे से ग्रस्त लोगों को भी यह क्रिया नहीं करानी चाहिए।
* हाई बीपी या दिल के मरीजों को इससे दूरी बनानी चाहिए।
* बहुत कमजोर व्यक्ति यह क्रिया न करें।
* गर्भवती महिलाएं भी यह नहीं कर सकतीं।