इस सीट में पिता-पुत्र का दबदबा रहा था। तो यहां चेला भी गुरू के खिलाफ मैदान में उतरा। इस सीट को धारा में विपरीत बहने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा पर तासीर नहीं बदली। इन किस्सों को जानने से पहले यहां का इतिहास जान लीजिए मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट 1967 में आस्तित्व में आई। इस सीट को पहले मुरैना-भिंड के नाम से जाना जाता था। मुरैना-भिंड सीट पर केवल एक ही बार चुनाव हुआ। साल था 1952… देश में 1967 में फिर आम चुनाव होते हैं। उससे पहले यहां परिसीमन होता है और सीट को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया। मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट आठ विधानसभा सीटों को मिलाकर बनी है। इस लोकसभा सीट में श्योपुर, विजयपुर, सबलगढ़, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी और अम्बाह विधानसभा सीटें आती हैं। यहां लंबे वक्त से भाजपा का कब्जा रहा है। जिस कारण इसे बीजेपी की पारंपरिक सीट का भी दर्जा दिया जाता है।
पिता -पुत्र के दबदबे वाली इस सीट के माथे पर एक दाग भी है। बात साल 2008 की है। केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। प्रधानमंत्री थे डॉ मनमोहन सिंह। भारतीय संसद में एक घटना घटती है। सरकार के विश्वास मत पर बहस चल रही थी। तभी तीन सांसदों ने नोटों की गड्डियों दिखाई। ये तीनों सांसद भाजपा के थे। आरोप था कि मनमोहन सरकार ने तब के समाजवादी नेता अमर सिंह के माध्यम से उन्हें खरीदने की कोशिश की थी। जिन तीन संसदों ने नोटों की गड्डियों दिखाई थी उनमें से मुरैना सांसद अशोक अर्गल भी शामिल थे। इस घटना के बाद साल 2009 में देश में चुनाव हुए। परिसीमन हुआ तो सीट सामान्य हो गई। सामान्य सीट होने के बाद अशोक अर्गल को मुरैना छोड़ना पड़ा। उनकी जगह मुरैना में ली नरेन्द्र सिंह तोमर ने और अर्गल को भेजा गय? भिंड ?? लोकसभा सीट। तोमर के सामने कांग्रेस ने रामनिवास रावत को उम्मीदवार बनाया। रामनिवास रावत कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। श्योपुर जिले की विजयपुर सीट से पांच बार विधायक रहे, पर 2009 में भाजपा का किला नहीं गिरा पाए।
हमने गुरू और चेले की बात की थी। वो गुरू थे मध्यप्रदेश सरकार के मौजूदा मंत्री डॉ गोविंद सिंह और चेले थे वृंदावन सिंह सिकरवार। 2014 के चुनाव से पहले गुरू-चेले में दरार बढ़ी। वजह थी खेमेबाजी। गोविंद सिंह को दिग्विजय सिंह के खेमे का माना जाता है तो सिकरवार धीरे-धीरे सिंधिया खेमे में शामिल हो गए। सिकरवार के पाला बदलने से गोविंद सिंह नाराज हुए। कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवार अनूप मिश्रा के खिलाफ गोविंद सिंह को टिकट दिया। सिकरवार अब बसपाई हो चुके थे। मुकाबला त्रिकोणीय हुआ। जीत भाजपा को मिली। पर चेले ने गुरू को मात दे दी थी। सिकरवार दूसरे नंबर पर थे तो गोविंद सिंह तीसरे नंबर पर और जीत कांग्रेस से इस बार भी दूर चली गई थी।
1967 आत्मादास- निर्दलीय
1971 हुकुमचंद कछवे- भारतीय जनसंघ
1977 छविराम अर्गल भारतीय लोक दल
1980 बाबूलाल सोलंकी कांग्रेस
1984 कम्मोदी लाल जाटव कांग्रेस
1989 छविराम अर्गल भाजपा
1991 बारेलाल जाटव कांगे्रस
1996 अशोक अर्गल भाजपा
1998 अशोक अर्गल भाजपा
1999 अशोक अर्गल भाजपा
2004 अशोक अर्गल भाजपा
2009 नरेंद्र सिंह तोमर भाजपा
2014 अनूप मिश्रा भाजपा
मुरैना-श्योपुर संसदीय सीट पर जातिवाद की राजनीति हावी है। यहां ठाकुर और ब्राम्हण की लड़ाई रहती है। जातिवाद की राजनीत के कारण ही इस सीट का रूख विपरीत दिशा में बहती है। मुरैना संसदीय सीट यूपी की सीमा से लगती है। जिस कारण यहां बहुजन समाज पार्टी का भी प्रभाव दिखाई देता है। एट्रोसिटी एक्ट को लेकर मध्यप्रदेश के इसी हिस्से में सबसे ज्यादा विरोध हुआ था। विरोध हिंसक भी था और कई लोगों की मौत हो गई थी।
इस संसदीय क्षेत्र में करीब दो लाख क्षत्रिय, डेढ़ लाख ब्राह्मण, डेढ़ लाख वैश्य मतदाता हैं। वहीं, दलितों के करीब साढ़े तीन लाख वोटर हैं। आदिवासी, अल्पसंख्यक और अन्य के वोटों का आंकड़ा करीब तीन लाख है। इसी तरह धाकड़ ( किरार), गुर्जर, कुशवाह, रावत, इन समाजों के 80 हजार से लेकर एक लाख तक वोट हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां की 78.23 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र और 21.77 फीसदी जनसंख्या शहरी क्षेत्र में रहती है। इस क्षेत्र में दलित, ठाकुर और ब्राह्मण मतदाता जीत और हार तय करते हैं। भाजपा की यहां जीत का सबसे बड़ा कारण रहा। ठाकुर और ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पाले में लाने का। यहां से भाजपा के कई कद्दावर नेता ठाकुर और ब्राह्मण थे। जबकि कांग्रेस हमेशा यहां ब्राह्मण नेता खोजती रही। मजबूत ब्राह्मण नेता नहीं होने के कारण कांग्रेस को यहां कभी भी ब्राह्मण वोट नहीं मिले। जबकि भाजपा ने ब्राह्मण और ठाकुर को लेकर चली। वहीं, दलित वोटरों के साधने के लिए भाजपा के पास अशोक अर्गल जैसे नेता थे। कहते हैं कांग्रेस की हार का एक कारण यहां नेताओं की गुटबाजी और भितरघात भी रहा।
जातिवाद के कारण इस संसदीय सीट को खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इस संसदीय सीट का कोई भी सांसद आज तक केन्द्रीय मंत्री नहीं बन सका। 2014 में जब भाजपा के अनूप मिश्रा जीते तो उम्मीद जगी की मंत्रालय मिलेगा पर मिला नहीं। अनूप मिश्रा का जिक्र आ ही गया है आपको बता देतें है। अनूप मिश्रा पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे हैं। सांसद बनने से पहले वो शिवराज सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे। 2019 में फिर से लोकसभा चुनाव होने हैं। लेकिन इस बार प्रदेश की सत्ता बदल गई है। 15 साल बाद यहां कांग्रेस की वापसी हुई है तो मुरैना संसदीय सीट पर भाजपा का प्रभाव कम हुआ है। भाजपा खुद मुरैना विधानसभा सीट पर हार गई है। एट्रोसिट एक्ट के खिलाफ लोगों में मौजूदा सांसद के खिलाफ गु्सा है तो कांग्रेस के सामने चेहरे की समस्या है। भाजपा के कई दावेदार हैं पर कांग्रेस अभी भी जातिगत राजनीति साधने के लिए चेहरे की तलाश कर रही है।
ये तो बात हुई राजनीति की लेकिन मुरैना की एक और खासियत है। कहते हैं कभी यहां दिन के उजाले में भी खौफ से रूह कांप जाती थी। जहां कभी सुबह और शाम बंदूक की गड़गडाहट सुनाई देती थी। डकैतों का आतंक था। अब मुरैना का दूसरा पहलू भी देख लीजिए। इसे शनिदेव की नगरी भी कहते हैं, आजादी की मतवाले वीर रामप्रसाद बिस्मिल की जन्म स्थली है। तो सरसों भी जमकर होती है तो यहां के गजक दुनिया भर में फेमस हैं। रेत का अवैध उत्खनन है तो प्रकृति का अनुपम दृश्य भी। चम्बल नदी के बीहड़ो से घिरे जिसे हिस्से को हम मुरैना के नाम से जानते हैं, वो असल में कभी ‘पेंच’ नाम से विख्यात था। यह पेंच नाम यहां पर लगी सरसों के तेल मील के कारण इसे दिया गया था। मुरैना में सरसों और बाजरा के प्रचुर उत्पादन के लिए पूरे भारत में मशहूर है। किस्सा लोकसभा सीट की अगली कड़ी में हम बात करेंगे चंबल से ही सटी एक और लोकसभा सीट की। तब तक के लिए नमस्कार।