बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ पर्व है। इसका संबंध सीधे महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा से जुड़ा है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को मां दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। इसी कारण इस तिथि को विजयादशमी उत्सव के रूप में लोक मान्यता प्राप्त हुई। भगवान राम ने अपने वनवास के लगभग दस साल दंडकारण्य में बिताए थे।
चार चक्कों का फूल रथ और आठ चक्कों का विजय रथ
दशहरे में बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी की विशेष पूजा की जाती है। उनके लिए यहां एक भव्य रथ तैयार किया जाता है, इस रथ में उनका छत्र रखकर नवरात्रि के दौरान भ्रमण के लिए निकाला जाता है। दशहरा में चलने वाले फूल रथ, चार चक्कों का तथा विजय रथ आठ चक्कों का बनाया जाता है।
जो विशाल दुमंजिला होता है। बिना किसी आधुनिक तकनीक या औजारों की सहायता से एक समयावधि में आदिवासी रथ का निर्माण करते हैं। रथ को आकर्षण ढंग से सजा कर खींचते हैं यह अधिकार केवल किलेपाल के माडिय़ा लोगों को ही है। कहा जाता है कि पुरी के भगवान श्री जगन्नाथ ने बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने के लिए पुजारी को आदेश दिया था।
रावण के पाखंड, स्वार्थ और अहंकार की हार
दशहरे के दिन उस सार्थक राम ने विजय पाई थी जो रावण जैसे महारथी के सामने भले धरती पर खड़ा दिखाई देता था लेकिन जिसके पास ऐसा रथ था जिसके पहिए शौर्य और धैर्य के थे, पताकाएं सत्य और शील की थीं और जिस रथ को बल, विवेक, संयम और परोपकार के अश्व खींचते थे।
राम इसी रथ पर सवार होकर दशहरे के दिन विजयी हुए थे और रावण हार गया था। रावण की हार, पाखंड, स्वार्थ, शोषण और अहंकार की हार थी जो मनुष्य के गुण नहीं हैं और इन्हीं गुणों के न रहने के कारण रावण मनुष्य न रहकर दानव बन गया। जिसके पास इस प्रकार रथ हो उसका विजय निश्चित है।