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भोपाल के इस शख्स ने बनाई डॉक्यूमेंट्री टैंक नं. 610, Gas Tragedy Day पर झलका तीसरी पीढ़ी का दर्द

भोपाल की स्याह रात का वो मंजर कोई नहीं भूल सकता। न देखने वाले न सुनने वाले। वो मंजर ही इतना भयावह और दर्दनाक था कि उसका हाल-बयां- करने शब्द कम पडऩे लगते हैं लेकिन उसकी तस्वीरें आपको उसके जख्म तक पहुंचाने देती हैं।

भोपालDec 03, 2022 / 02:11 pm

Sanjana Kumar

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भोपाल। भोपाल की स्याह रात का वो मंजर कोई नहीं भूल सकता। न देखने वाले न सुनने वाले। वो मंजर ही इतना भयावह और दर्दनाक था कि उसका हाल-बयां- करने शब्द कम पडऩे लगते हैं लेकिन उसकी तस्वीरें आपको उसके जख्म तक पहुंचाने देती हैं। त्रासदी के जख्म से पीढिय़ां की पीढिय़ा खत्म हो गईं। तस्वीरों के साथ ही कई लेखकों ने, साहित्यकारों ने और फिल्म निर्माताओं ने इस त्रासदी को अपने ताने-बाने में बुनते हुए लोगों तक पहुंचाया है। इसी कड़ी में राजधानी भोपाल के एक लेखक ओर निर्देशक डॉ. सुधीर आजाद ने भोपाल गैस त्रासदी पर शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री के साथ ही डॉक्यूमेंट्री फीचर भी तैयार की है।

त्रासदी के दर्द और उससे पीढिय़ों पर पड़े असर को दिखाती यह फिल्म त्रासदी की पूर्व संध्या पर एलएनसीटी के सभागार में प्रदर्शित की गई। डा. सुधीर आजाद ने भोपाल गैस त्रासदी पर शार्ट डाक्यूमेंट्री टैंक नबंर ई- 610 और इसके साथ ही फीचर डाक्यूमेंट्री बनाई है, जो शार्ट फिल्म का विस्तृत संस्करण है। शार्ट फिल्म 26 मिनट की है, जबकि फीचर डाक्यूमेंट्री एक घंटे दस मिनट की है। फीचर का प्रदर्शन अभी नहीं किया गया है।

 

दूसरी और तीसरी पीढ़ी की मुश्किलें बयां करती डॉक्यूमेंट्री
टैंक नंबर ई-610 वह है, जिससे यूनियन कार्बाइड कारखाने में गैस का रिसाव हुआ था। भोपाल गैस त्रासदी की विभीषिका और उसके बाद उपजी विसंगतियों और दुष्प्रभावों को बयान करती हुई इस डाक्यूमेंट्री में भोपाल गैस त्रासदी की दूसरी और तीसरी पीढ़ी की दर्दनाक और बेहद जटिल जिंदगी की उन सच्चाइयों को प्रस्तुत किया गया है, जो अब तक पीडि़तों की गिनती में नहीं हैं। फिल्म में स्वास्थ्य, चिकित्सा, पुनर्वास, मुआवजा समेत पर्यावरण जैसे बहुत ही संवेदनशील और गंभीर मुद्दों को पूरी प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। फिल्म में भोपाल गैस त्रासदी पर डॉ. सुधीर आजाद की एक नज्म भी शामिल है।…पापा उठाओ न मुझे, मिट्टी गड़ती है बहुत, मां की गोद में नरमी है, वहां जाना है।

https://youtu.be/PZFjhjmKDHw

भोपाल के भीतर भी एक भोपाल है
डॉ. आजाद के मुताबिक भोपाल के भीतर एक भोपाल रहता है, जिसका चेहरा बहुत डरावना है और विडंबना यह है कि हम ही इसके बारे में नहीं जानते। फिल्म में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के आसपास के इलाके के पर्यावरण, स्वास्थ्य और जीवन के अन्य सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को प्रामाणिक से दिखाया गया है। वे बताते हैं कि भोपाल गैस पीडि़तों के लिए संघर्ष कर रहे सभी संगठन और संस्थाओं का सहयोग और साथ इस फिल्म के निर्माण का सबसे बड़ा आधार है। फिल्म की अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता है। इसे बनाने का बुनियादी आधार यही है कि भोपाल गैस त्रासदी से दुनिया और हमारे अपने लोग वाकिफ हो सकें। यह फिल्म बताती है कि अब दूसरी और तीसरी पीढ़ी पर गैस का इतना विषैला प्रभाव सामने आ रहा है कि कल्पना करना मुश्किल है कि कल कितना भयावह हो सकता है। पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी इन समस्याओं पर अगर आज से भी काम शुरू हो जाए तो 100 साल से ज्यादा वक्त लगेगा पुराने भोपाल की गैस प्रभावित जमीन और जनता को सामान्य होने में।

हादसे कभी रंगीन नहीं होते, स्याह या सफेद होते हैं
फिल्म स्क्रीनिंग के बाद आजाद ने विद्यार्थियों से भी बातचीत की। इस दौरान एक छात्रा ने पूछा कि उनकी यह फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट क्यों है। इस पर आजाद का कहना था कि हादसे कभी रंगीन नहीं होते, हमेशा स्याह और सफेद होते हैं।

त्रासदी पर अब तक का पहला उपन्यास भी है इनके नाम
आपको बता दें कि डॉ. सुधीर आजाद ने इस गंभीर विषया पर फिल्म ही नहीं बनाई बल्कि वह इस पर उपन्यास भी लिख चुके हैं। डॉ. आजाद ने 2013 में इस त्रासदी की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास ‘भोपाल-सहर…बस सुबह तक’ भी लिखा है, जो एक प्रेम कहानी है। यह हिन्दी का अब तक का पहला और एकमात्र उपन्यास है। संवेदनाओं से भरे उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण ‘भोपाल…अंटिल द डान’ भी आ चुका है।

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