आधुनिक युग में अपनी सांस्कृतिक आभा खो रहे संज्या व लोकगीत
बमोरीकलां. पहले ग्रामीण अंचलों में श्राद्ध पक्ष शुरू होते ही हर घर की दीवारों पर शाम के समय गोबर से बनी संज्यानजर आती थी। शाम होते ही बालिकाएं गोबर इक_ा करने में इधर-उधर दौड़ धूप कर संज्या बनाने में व्यस्त रहती थी। दीवारों पर गोबर से आकर्षक कला के माध्यम से बना कर उन पर फूल व चमकीली पन्नियां लगाकर रोजाना अलग-अलग तरीके से संज्या को बनाकर सजाया जाता था। उसके बाद रात के समय सभी मोहल्ले की लड़कियां जमा होकर संज्या के गीत गाकर आरती उतार कर प्रसाद बांटा करती थी। यह हर साल अनन्त चतुर्दशी पर्व के दूसरे दिन से शुरू हो जाता है। जो सोलह दिन तक जारी रहता है। लेकिन इन दिनों गिने चुने घरों की दीवारों पर गोबर से बनी संज्या दिखाई देगी, और इसके लोकगीत तो जैसे विलुप्त ही हो गए हैं। वर्तमान समय में शहरों की तो दूर बल्कि गांवों में भी संज्या अपना अस्तित्व खोती खोती जा रही है। आजकल छोटी लड़कियां संज्या व उसके गीतों से अनजान हैं। आने वाले समय में संज्या अब अतीत का हिस्सा देखने को मिलेगी। क्योंकि आधुनिक समय में परम्परा व सभ्यताएं वर्तमान में नगण्य होती जा रही हैं।
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