पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की। विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम ‘नीलकंठ महादेव’ पड़ा। इस दौरान समुद्र से पारिजात, हलाहल विष, शारंग धनुष, पांचजन्य शंख, चंद्रमा, ऐरावत हाथी, रंभा, वारुणी, लक्ष्मीजी, कल्पवृक्ष, कामधेनू गाय, कौस्तुभ मणि, उच्चै:श्रवा घोड़ा और अमृत कलश आदि प्राप्त हुआ था।
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मंदिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोतकालिंजर किला के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गईं हैं। भगवान नीलकंठ मंदिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है।
बुंदेलखंड के अपराजेय कालिंजर किले में भगवान नीलकंठ का मंदिर है। यहां स्वयंभू नीले पत्थर का शिवलिंग है। जिसपर जलाभिषेक और दूध, शहद चढ़ाना मना है। कालिंजर किला पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। विभाग के संरक्षक सहायक सत्येंद्र कुमार ने बताया कि पुरातत्व वैज्ञानिकों के शोध में जलाभिषेक से शिवलिंग क्षरण की बात सामने आई है। इसी वजह से दूध, शहद और जल चढ़ाने पर रोक लगा दी गई।