पीर रतन नाथ बाबा की शोभा यात्रा, नेपाल से नौ दिन बाद पहुंचा अमृतकलश, दर्शनमात्र से दूर हो जाते हैं कष्ट
सुजीत शर्मापत्रिका लाइवबलरामपुर. चैत्र नवरात्र की पंचमी तिथि को एक बार फिर इतिहास रचा गया। नेपाल और भारत की मैत्री और प्रगाढ़ हुई। 700 वर्षों से चली आ रही अमृत कलश यात्रा जब नौ दिन बाद भारत की सीमा में पहुंची तब श्रद्धालुओं में खुशी के आंसूओं का सैलाब टूट पड़ा। सिद्ध पीर बाबा रतननाथ की शोभायात्रा देखने के लिए दोनों राष्ट्र के हजारों हिंदू और मुसलमान एक साथ जुटे। शोभा यात्रा का जगह-जगह फूल बरसाकर स्वागत किया गया। गाजे-बाजे के साथ सिद्ध पीर रतननाथ जी की शोभा यात्रा सुबह बलरामपुर के शक्तिपीठ देवीपाटन मंदिर पहुंची। इसके बाद विधि-विधान से अमृत कलश का पूजन किया गया।
बलरामपुर और आसपास के हजारों लोग बुधवार को 700 साल पुरानी पौराणिक बाबा पीर रतननाथ की अमृत कलश शोभायात्रा के गवाह बने। भारत-नेपाल की सीमा पर स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन मंदिर दोनों देशो की धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता की निशानी है। हर साल यहां चैत्र नवरात्र में नेपाल से बाबा रतननाथ की ऐतिहासिक शोभायात्रा आती है जो देवीपाटन मंदिर पर आकर खत्म होती है। इस साल भी यह यात्रा न केवल भारत-नेपाल के लिए बल्कि सात समन्दर पार रहने वाले लोगों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी। इस यात्रा में सैकड़ों विदेशी भी शामिल हुए।
अमृतकलश के दर्शन को उमड़ती है भीड़ नेपाल के दांग से अमृतकलश यात्रा हर साल निकलती है। शोभायात्रा के दौरान श्रद्धालु अपने आराध्य देवता और अक्षयपात्र के साथ पैदल भारत आते हैं। इस यात्रा में नौ दिन का समय लगता है। सिद्ध पीर बाबा रतननाथ नेपाल राष्ट्र के दॉग के राजा और गुरू गोरक्षनाथ के भी शिष्य थे। इन्होंने ही शक्तिपीठ देवीपाटन का निर्माण कराया था। जनश्रुति है कि मां पाटेश्वरी की पूजा के लिए बाबा प्रतिदिन दॉग से यहां आते थे। माता पाटेश्वरी के अनन्य भक्त बाबा रतननाथ सात सौ वर्षो तक जिन्दा थे। बाबा के गोलोकवासी होने के बाद गुरूगोरक्षनाथ द्वारा दिए गए अमृत अमृत कलश को बाबा रतननाथ के प्रतिनिधि के रूप में नेपाल के दांग से देवीपाटन लाया जाता है। बताते हैं इस अमृतकलश के दर्शनमात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। इसीलिए इस कलश के दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रृद्धालु पहुंंचते हैं।
कौन थे बाबा रतननाथ 51 शक्तिपीठों में से एक देवीपाटन शक्तिपीठ की देशभर में बहुत मान्यता है। देवीपाटन मंदिर के महंत मिथिलेश नाथ के मुताबिक इस मंदिर की स्थापना बाबा रतननाथ ने ही की थी। वह देवी के अन्नय भक्त थे। इसके अलावा बाबा रतननाथ बाबा गोरक्षनाथ के भी शिष्य थे। गोरक्षनाथ ने बाबा रतननाथ को एक अक्षयपात्र दिया था। इसी अक्षयपात्र को हर साल नेपाल से देवीपाटन मंदिर में बड़ी धूमधाम से लाया जाता है। यह सिलसिला विक्रम संवत 809 से शुरू हुआ था। शोभायात्रा प्रति वर्ष चैत्र नवरात्र के पंचमी के दिन शक्तिपीठ देवीपाटन पहुंचती है। बताया जाता है कि बाबा रतननाथ आठ प्रकार के सिद्धियों के स्वामी थे। उन्होंने विश्व भ्रमण के दौरान मक्का-मदीना में मोहम्मद साहब को भी ज्ञान दिया था। तब मोहम्मद साहब बाबा रतननाथ से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा रतननाथ को पीर की उपाधि दी। इसलिए इन्हें सिद्ध पीर बाबा रतननाथ के नाम से जाना जाता है।
नेपाल के पुजारी संभालते हैं कमान शिवावतार गुरु गोरक्षनाथ के शिष्य रतननाथ की पूजा से मां पाटेश्वरी इतनी प्रसन्न हुई कि इनसे वरदान मांगने को कहा। तब रतननाथ ने कहा माता मेरी प्रार्थना है कि यहां आपके साथ मेरी भी पूजा हो। देवी ने उन्हें मनचाहा वरदान दे दिया। तभी से मां पाटेश्वरी मंदिर प्रांगण में रतननाथ का दरीचा कायम है। दरीचे में चैत्र नवरात्रि की पंचमी से लेकर एकादशी तक रतननाथ बाबा की पूजा होती है। इनकी पूजा के दौरान घंटे व नगाड़े नहीं बजाए जाते है। मां पाटेश्वरी की पूजा सिर्फ रतननाथ जी के पुजारियों द्वारा ही की जाती है। शोभायात्रा के साथ आए पुजारी पांच दिनों तक मंदिर के पुजारियों को विश्राम देकर पूजा की कमान खुद संभालते हैं।