बता दें कि आजमगढ़ मंडल में 21 सीटें हैं। इसमें सर्वाधिक 10 सीटें आजमगढ़ जनपद में है। आजमगढ़ जिले की दीदारगंज, मुबारकपुर सीट पर 24-24 प्रतिशत अल्पसंख्यक मतदाता है। यहां ये हमेशा से निर्णायक की भूमिका में रहे है लेकिन जहां तक वोटिंग का सवाल है तो 91 से अब तक ये उसी को वोट करते रहे है जो बीजेपी को पराजित करे। इसी तरह अतरौलिया में 34 और लालगंज में 31 प्रतिशत सवर्ण है। मेंहनगर क्षेत्र में भी सवर्णाे की संख्या 26 प्रतिशत है। मेंहनगर सीट आरक्षित होने के कारण यहां सवर्णाे को मौका नहीं मिलता तो लालगंज वर्ष 2012 के चुनाव में आरक्षित की गयी लेकिन यहां और अतरौलिया में पिछले दो दशक से कोई सवर्ण इस लिए नहीं जीता कि एम वाई फैक्टर हमेशा से प्रभावी रहा है। साथ ही इसकी बड़ी वजह सवर्ण मतदाताओं का बिखराव है।
गोपालपुर, निजामाबाद, सदर, सगड़ी, फूलपुर, सदर में 21 से 23 प्रतिशत दलित और इतनी ही संख्या में यादव मतदाता है। यहां सवर्ण मतदाताओं की संखया 10 से 12 प्रतिशत के मध्य है। वहीं मुस्लिम मदताताओं की संख्या 12 से 14 प्रतिशत के मध्य है। बाकी अन्य पिछड़े मतदाता है। यहां हमेशा से अन्य पिछड़े मतदाता निर्णायक साबित हुए हैं। कारण कि अल्पसंख्यक सपा और बसपा में बंटे हुए है और यहां भी इनकी पहली प्राथमिकत बीजेपी को हराना होता है। यूं कहा जा सकता है आजमगढ़ में जाति फैक्टर तो काम करता ही है साथ ही धर्म पर आधारित वोटिंग भी होती रही है। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रत्याशी रामकृष्ण यादव के जीत की वजह यहीं थी जबकि पूरे देश में बसपा का सूपड़ा साफ था और मायावती तथा कांशीराम भी चुनाव हार गये थे। रामकृष्ण यादव बसपा के पहले सांसद बने थे।
बात करें मऊ जनपद की चार सीटों की तो यहां भी जातीय समीकरण हमेंशा से काम किया है। सदर विधानसभा में अनुसूचित जाति के सर्वाधिक सवा लाख मतदाता है लेकिन मुस्लिम मतदाताओं की तादात भी इनसे मात्र पांच हजार कम है। रहा सवाल निर्णायक की तो हमेंशा से अन्य पिछड़े बल्कि यूं कह सकते है कि चौहान जाति के लोग रहे है। यह यहां धर्म के आधार पर भी वोटिंग होती रही है। पिछले चार चुनाव से यहां इसका सीधा फायदा मुख्तार अंसारी को मिला है।
घोसी विधानसभा में सर्वाधिक 1.35 लाख अनुसूचित जाति और 90 हजार मुस्लिम मतदाता है। यहां भी निर्णायक की भूमिका में 76 हजार चौहान हैं। इस सीट पर हमेंशा से अनुसूचित और चौहान मतदाता हाबी रहे हैं। मुह्मदाबाद गोहना विधानसभा में करीब 145740 अनुसूचित और 92270 मुस्लिम मतदाता है। चालीस हजार राजभर और साठ हजार चौहान यहां भी हमेशा से निर्णायक की भूमिका निभाते रहे हैं। सुरक्षित सीट होने के कारण सपा और बसपा यहां हमेंशा से भारी रही है। पिछला चुनाव यहां बीजेपी जीती थी। मधुबन विधान सभा में 125240 अनुसूचित, 80280 मुस्लिम, 65680 यादव मतदाता है लेकिन यहां भी 44 हजार चौहान और 22 हजार कुर्मी हारजीत का अंतर तय करते हैं। इस सीट पर भी पिछली बार बीजेपी ने कब्जा जमाया था।
बात करें बागी बलिया की तो यहां सात सीटें है और यहां की राजनीति हमेशा से चंद्रशेखर सिंह के इर्द गिर्द घूमती रही है। बलिया सदर सीट पर सवर्ण हमेशा से निर्णायक रहा है और वही तय करता है कि विधायक कौन होगा। यहां अनुसूचित जाति और यादव मतदाताओं की संख्या क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबर पर है। बेल्थरा सीट अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति बाहुल्य है लेकिन प्रतिनिधि का फैसला करीब 18 प्रतिशत पासी जाति के लोग करते हैं। बासडिह सीट यादव व दलित बाहुल्य है लेकिन यहां चौहान मतदाता तीसरे नंबर पर है। करीब 12 प्रतिशत सवर्ण और चौहान मतदाता यह तय करते हैं कि विधायक कौन होगा। यहां जातीय समीकरण हमेशा से हाबी रहा है।
बैरिया में यादव क्षत्रिय मतदाता सबसे अधिक हैं। तीसर नंबर पर कुर्मी मतदाता आते हैं। फेफना एक ऐसी सीट है जहां हमेशा से भूमिहार भारी रहा है। सारे जातीय समीकरण के बाद भी यही बिरादरी तय करती है कि विधायक कौन होगा। रसड़ा क्षत्रिय व दलित बाहुल्य सीट है। वोटिंग हमेशा से जातिगत आधार पर होती रही है लेकिन निर्णायक क्षत्रिय साबित होते हैं। सिकंदरपुर मुस्लिम बाहुल्य सीट है यहां यादव और राजभर क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबर पर है लेकिन यहां हमेशा से चंद्रशेखर सिंह के परिवार का सिक्का चलता रहा है। मुस्लिम मतदाता तय करता है कि विधानसभा में कौन पहुंचेगा।