बता दें कि जिला पंचायत सदस्य की 84 सीटों पर हाल में हुए चुनाव में सपा 25 सीट जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। यहां जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए विजय यादव के अलावा निवर्तमान अध्यक्ष मीरा यादव, छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष पप्पू यादव सहित कई नेताओं ने दावेदारी की थी। दावा सबसे अधिक मजबूत मीरा यादव का था लेकिन पार्टी में उनके सुसुर जिलाध्यक्ष हवलदार के प्रति नाराजगी थी। जिसका एहसास शीर्ष नेतृत्व को भी था। सामने चुनाव है और पार्टी नेतृत्व को एहसास भी है कि अगर गुटबंदी समाप्त नहीं हुई तो स्थिति 2014 की बन सकती है। जब खुद मुलायम को कहना पड़ा था कि अगर मेरा परिवार न होतो तो मैं यहां से हार के जाता। यहां के नेता तो चुनाव हरा ही दिये थे।
यही वजह है कि सपा को जिलाध्यक्ष पद फैसला करने में डेढ़ साल का वक्त लग गया तो जिला पंचायत अध्यक्ष का प्रत्याशी घोषित करने में भी वह भाजपा से पिछड़ गई। सपा के राष्ट्रीय बलराम यादव से हवलदार का छत्तीस का आंकड़ा है। इसलिए मीरा की राह का सबसे बड़े रोड़ा बलराम बने। सूत्रों की मानें तो रमाकांत यादव भी हवदार के खिलाफ थे। दुर्गा ने अविश्वास प्रस्ताव का मामला रहा हो या फिर उन्हें जिलाध्यक्ष बनाने का बलराम के विरोधी होने के कारण हमेशा उनका साथ दिये लेकिन इस बार बेटे को कुर्सी पर आसीन करने के लिए वे भी हवलदार के खिलाफ हो गए। हवलदार के साथ सिर्फ एक विधायक आलमबदी नजर आये।
यही वजह है कि शीर्ष नेतृत्व को न केवल निर्णय में समय लगा बल्कि विजय यादव के नाम पर अंतिम मोहर लगी। कारण कि पार्टी को डर था कहीं अपने ही भीतरघात कर लुटिया न डुबा दें। जैसे कि पूर्व के लोकसभा चुनाव में हुआ था। विजय को टिकट देकर अखिलेश ने जहां बाहुबलियों को खुश कर दिया वहीं हवलदार को भी मैनेज करने की कोशिश की। उनकी अध्यक्ष की कुर्सी बरकरार रखी गयी।
BY Ran vijay singh