‘जीवन में राम’ भाग 1: हनुमंत पीठ के महंत मिथिलेश नन्दिनी शरण का आलेख, दर्पण देखें या श्रीराम को
22 जनवरी को अयोध्या में नवनिर्मित राममंदिर में भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होगी। हनुमंत पीठ के महंत और श्रीराम व शिव तत्व के विद्धान आचार्य मिथिलेश नन्दिनी शरण के शब्दों में श्रीराम के आदर्शों की सामान्य जीवन में स्थापना पर पढ़ें शृंखला – ‘जीवन में राम’।
मनुष्यता की इस उत्थान-यात्रा के एक सार्वभौम आदर्श का नाम है श्रीराम। भारतवर्ष में सदियों से श्रीराम अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण जन-जन के प्रिय हैं। लोक को शिक्षा-संस्कार देने और नई पीढ़ी को चारित्रिक गुणों से युक्त बनाने के लिए प्राय: सभी भाषाओं में श्रीराम की कथा दुहराई-गाई जाती है। श्रीराम की व्याप्ति को लक्ष्य करते हुए श्रीजयदेव कवि अपने प्रसिद्ध नाटक ‘प्रसन्नराघवम्’ में कहते हैं – ‘स्वसूक्तीनां पात्रं रघुतिलकमेकं कलयतां कवीनां को दोष: स तु गुणगणानामवगुण:। अर्थात् अपने सदगुुण कथन में बारम्बार श्रीराम का ही वर्णन करते हैं तो इसमें कवियों का क्या दोष है, यह तो गुण समूहों का ही दोष है।’ इसी कथन से अपनी बात को जोड़ते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं – ‘राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है।’
संसार में आदर्श मनुष्यता को संभव बनाने का अनुष्ठान करते हुए महर्षि वाल्मीकि ने उसके प्रथम लक्षण का संकेत ‘गुणवान’ कहकर किया- ‘कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान।’ श्रीनारद जी ने इसका उत्तर देते हुए श्रीराम का परिचय दिया। वह परिचय आंगिक सौष्ठव को बताते हुए सौन्दर्य गुण, बल का वर्णन करते हुए शौर्य गुण, क्षमा-करुणा आदि का संकेत करते हुए औदार्य गुण, सत्य और धर्मनिष्ठा के माध्यम से सौशील्य आदि गुणों को व्यक्त करता है।
अपने रूप को संवारने-निखारने की एक सहज व्यवस्था है दर्पण देखना। दर्पण यह नहीं बताता कि रूप कैसा होना चाहिए पर उसमें स्वयं को देखते हुए अपनी सही पहचान हो जाती है। दर्पण का यही गुण उसे ‘आदर्श’ नाम देता है। मानव-चरित्र श्रीराम में अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है और इस प्रकार अपने को स्वरूप के अनुरूप संवार सकता है। श्रीराम के चरित्र का ध्यान करते हुए उनके चारित्रिक गुण कई आयामों में स्पष्ट होते हैं। महाराज दशरथ श्रीराम को पुत्र के रूप में देखते हैं, आज्ञाकारी, वशवत्र्ती और सत्यनिष्ठ सन्तान की भूमिका में श्रीराम अद्वितीय हैं। कहा गया है कि जो अपने आचरण से पिता को सन्तुष्ट करे वही सच्चा पुत्र है, श्रीराम के आचरण पर महाराज दशरथ गर्व करते हैं। श्रीराम को युवराज बनाने का उनका संकल्प भी गुणों पर केन्द्रित है।