मलाई का खेल देश में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की गूंज हर ओर सुनाई पड़ती है, लेकिन अलवर में महिलाओं की पीड़ा का अंदाजा शायद किसी को नहीं है। तभी तो जननी सुरक्षा का दावा करने वाले शासन प्रशासन के राज में उन्हीं जननियों को सडक़ पर उतरना पड़ रहा है। खास बात यह है कि जिस प्रसूता व गर्भवती महिला को बेहतर इलाज का दावा किया जाता है, उन्हीं महिलाओं की सोनोग्राफी तक की सुविधा नहीं दे पा रहे हैं। दीवारों के कान लगाए तो सुनाई दिया कि यह सब निजी का खेल है, यानि निजी सोनोग्राफी सेंटरों को लाभ दिलाने का खेल चल रहा है। सुनकर बात सही भी लगी, क्योंकि मलाई तो ये निजी सोनोग्राफी सेंटर वाले ही खिलाते हैं, फिर इनका ध्यान नहीं रखें तो मलाई में लाले नहीं पड़ जाएंगे। रही बात जननी सुरक्षा की यह तो स्लोगन में ही पूरी कर लेंगे।
समोसो से प्रेम अधिकारियों को समोसे से बहुत प्रेम है। पिछले दिनों शिक्षकों की हुई काउन्सलिंग में देखने को मिला। विशेष शिक्षकों की काउन्सलिंग नियमों की जानकारी के अभाव में रोकी गई थी। समय खाली था तो क्यों नहीं इसका उपयोग किया जाए, यही सोचकर भाई लोगों ने तुरत फुरत में समोसे मंगा लिए और बड़े साहब को खुश करने के लिए उनके सामने परोस दिए। खैर महकमें के एक बड़े साहब ने तो समोसे नहीं खाए लेकिन दूसरे भाई लोग सारी चिंता छोड़ लेने लगे समोसे के चटकारे, लेकिन बड़े साहब की फटकार सुन भाई लोगों का जायका ही खराब हो गया। वैसे अपने महकमें में कुछ भाई लोग ऐसे भी हैं, जिन पर फटकार का असर नहीं पड़ता, तभी तो ऐसे भाई लोग एक नहीं दो-दो समोसे डकारने में पीछे नहीं रहे।
ऊपर वाले मेहरबान तो हमें भी बनना पड़ेगा कद्रदान कृषि उपजमंडी में पूर्व में आला पद पर रह चुके एक अधिकारी को अलवर से इतना मोह है कि वे कोई न कोई तिकड़म बिठाकर अलवर कृषि उपज मंडी पहुंच ही जाते हैं। पिछले दिनों तो इस आला पोस्ट पर तैनात एक अधिकारी एपीओ हुए तो इन साहब का मौका लग गया और ये कार्यवाहक बनकर आ जमे। हवा के रूख भांपने में माहिर इन साहब ने मंडी में कुछ व्यापारियों से अपना स्वागत भी करवा लिया। यह बात अलग है कि बाद में इन्हें लौटना पड़ा। पर जोड़ तोड़ के माहिर ये साहब कहां शांत बैठने वाले थे, फिर अलवर आ जमे और पहले से भी बड़े ओहदे पर। अब मंडी के व्यापारी ही नहीं, अन्य भाई लोग भी मन ही मन कहने लगे हैं कि ऊपर वाले मेहरबान तो हमें भी बनना पड़ेगा कद्रदान।
नौकरी एेसी हो, जहां पहले मलाई हो कहने को तो टयूशन बुराई है लेकिन आजकल यह गुरुजी की शुद्ध कमाई है। तभी तो स्कूल, कॉलेज खुलते ही कुछ गुरुजी स्कूल की चिंता छोड़ मनचाही जगह पर पोस्टिंग की सैटिंग बिठाने में जुट गए हैं। स्कूलों में मोटी पगार से पार नहीं पडऩे का राग अलापने वाले इन भाई लोगों को कौन समझाए कि कमाई तो अच्छी बात है, पर बुराई में कमाई की राह ढूंढऩा तो गलत है। वैसे तो उपन्यासकार पे्रमचंद ने कहा कि नौकरी ऐसी हो जिसमें कोई ऊपर की कमाई न हो, लेकिन गुरुजी ने इस बात का भी अर्थ बदल लिया और कहने लगे कि नौकरी ऐसी हो, जहां पहले मलाई की सुविधा हो। यही कारण है कि गुरुजी मलाई के फेर में सेटिंग कर घर के आसपास ही टिके रहने की जुगत में लगे हैं। इधर, दिन रात मेहनत कर स्कूलों को सींचने वाले मनमसोस कर रह जाते हैं।
फूट न जाए रैली का गुबार पिछले दिनों जयपुर में दिल्ली वाले बड़े साहब की रैली में अच्छी खासी भीड़ जुटने से भाई लोग गद्गद हैं। रैली की भीड़ की मुस्कान इन दिनों भाई लोगों के होठों पर थिरकती दिखाई पड़ती है। अब तो भाई लोग खम ठोक फिर से कुर्सी का दावा भी करने से पीछे नहीं हैं। अब इन भाई लोगों को कौन समझाए कि भाई बड़े साहब की रैली में भीड़ जनता की नहीं, सरकारी थी। अब सरकारी हुक्म था तो हुक्मरान को तो हुक्म बजाना ही था, तो सारा काम काज छोड़ एक पखवाड़े से जुटे थे रैली की तैयारियों में। खैर जैसे तैसे हुक्मरान ने अपना काम कर दिया, लेकिन गद्गद हो रहे भाई लोगों का इसमें क्या पुरुषार्थ रहा। यह बात अलग है कि सरकारी खर्चे में कई भाई लोग भी राजधानी की सैर कर आए। अब इनको कौन समझाए कि लोकसभा उपचुनाव से पहले भी भाई लोग ऐसे ही गद्गद थे, लेकिन जैसे ही परिणाम आया गुबार ऐसा फटा कि अब तक सिलने में नहीं
आ पाया।