तीन दर्जन से अधिक मुस्लिम परिवार इस गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं। यहां के तीन दर्जन से अधिक मुस्लिम परिवारों की रोजी-रोटी का साधन चुनरी और कलावा है। यहां बनाई गई चुनरी मीरजापुर स्थित मां विंध्यवासिनी, मैहर स्थित शीतला माता, हिमाचल में मां ज्वालादेवी, हरियाणा में मंशा देवी और गुवाहाटी में कामाख्या देवी को चढ़ती है। इसके साथ ही देश के अन्य कोनो में जाती है।
इस तरह बनती है चुनरी आस्था का पर्व नवरात्र को लेकर घरों में तैयारी पूरी कर ली गई है। सुबह से ही मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहेगा। लेकिन आप बता दें कि पूजा की थाली में रखी चुनरी शक्ति का प्रतीक मानी जाती है। लेकिन इन चुनरी को किसने बनाया और वह किस धर्म से होगा इसपर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इसीलिए आप बता दें कि लालगोपालगंज में लाल कपड़े को रंगीन सितारों और गोटे से सजाकर चुनरी बनाने वाले हाथ मुस्लिमों की सब्बाग बिरादरी के हैं। चुनरी व कलावा ने यहां तीन दर्जन परिवारों को रोजगार दिया है।
ब्रिटिश काल से बनती है चुनरी आप को बता दें कि खानजहानपुर, अहलादगंज और इब्राहीमपुर मोहल्लों में चुनरी कलावा बनाने का काम ब्रिटिश भारत में शुरू हुआ था। यह काम आज भी जारी है। चुनरी का ढेर देखकर आप का मन प्रसन्न जरूर हो जाएगा। भोर में चार बजे से रंग चढ़ाने का कार्य होता है और सूरज निकलने से पहले चुनरी सुखाने के लिए धूप में रखी जाती हैैं। परिवार के बच्चों के अलावा महिलाएं भी हाथ बंटाती हैं। महाराष्ट्र से आता है कच्चा सूत और कपड़ा आता है। चुनरी व्यपारी ने कहा कि इस बार 15 दिन पहले से ही डिमांड अधिक है।
700 रुपये तक बेची जाती है चुनरी छोटा सा कस्बा लालगोपालगंज में 21 से लेकर 700 रुपये तक कीमती चुनरी बनाई जाती है। चुनरी में डिजाइन का काम अधिक होने, कपड़े की क्वालिटी और साइज बढऩे पर दाम बढ़ता है। दूसरे प्रदेशों के व्यपारी नवरात्र से छह माह पहले से ही ऑडर दे देते हैं। ऐसे में सालाना कारोबार एक करोड़ से अधिक होता है।