20वीं सदी के सबसे बेहतरीन और कामयाब शायर और गीतकार कहे जाने वाले साहिर लुधियानवी ने एक नज्म लिखी थी। पंडित नेहरू पर लिखी ये नज्म कुछ यूं है-
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते
सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
वो जो हर दीन से मुंकिर था हर इक धर्म से दूर
फिर भी हर दीन हर एक धर्म का गमख़्वार रहा
उम्र-भर सूरत-ए-ईसा जो सर-ए-दार रहा
जिसने इंसानों की तक़्सीम के सदमे झेले
फिर भी इंसा की उखुव्त का परस्तार रहा
जिस की नज़रों में था आलमी तहजीब का ख़्वाब
जिस का हर सांस नए अहद का मेमार रहा
उसका बख़्शा हुआ सह-रंग-ए-अलम लेके चलो
जो तुम्हें जादा-ए-मंजिल का पता देता है
अपनी पेशानी पर वो नक़्श-ए-कदम ले के चलो
वो जो हमराज रहा हाजिर-ओ-मुस्तकबिल का
उस के ख़्वाबों की खुशी रूह का गम लेके चलो
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते
धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते
सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है।
नेहरू के लिए लिखी कैफी आजमी की नज्म मैंने तन्हा कभी उस को देखा नहीं
फिर भी जब उस को देखा वो तन्हा मिला
जैसे सहरा में चश्मा कहीं
या समुन्दर में मीनार-ए-नूर
या कोई फिक्र-ए-औहाम में
फिक्र सदियों अकेली अकेली रही
जहन सदियों अकेला अकेला मिला
हर नए हर पुराने जमाने में वो
बे-जबां तीरगी में कभी
और कभी चीखती धूप में
चाँदनी में कभी ख़्वाब की
उस की तकदीर थी इक मुसलसल तलाश
खुद को ढूंढा किया हर फसाने में वो
कद मगर और कुछ और बढ़ता रहा
खैर-ओ-शर की कोई जंग हो
ज़िंदगी का हो कोई जिहाद
वो हमेशा हुआ सब से पहले शहीद
सब से पहले वो सूली पे चढ़ता रहा
उन की आगोश में फिर समाया न वो
खून में वेद गूंजे हुए
और जबीं पर फरोजां अजां
और सीने पे रक़्साँ सलीब
बे-झिझक सब के काबू में आया न वो
सिर्फ़ इक कील उस कील का इक निशां
नश्शा-ए-मय कोई चीज़ है
इक घड़ी दो घड़ी एक रात
और हासिल वही दर्द-ए-सर
उस ने ज़िन्दां में लेकिन पिया था जो जहर
उठ के सीने से बैठा न इस का धुआं।