पौराणिक कथाओं के अनुसार करीब ५ हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में पांडव जब वनवास में थे, तो वह घूमते-घूमते इस स्थल पर पहुंचे, जहां अभी आणंद शहर वसा है। पांडवों के साथ उनकी माता कुंती भी थी। माता का नियम था कि वह शिवलिंग के दर्शन किए बिना भोजन नहीं करती थीं। माता के इस नियम के चलते भीम को भी भूखा रहना पड़ता था, जिन्हें भूख सहन नहीं होती थी। इस स्थल पर कहीं शिवलिंग नहीं मिला तो माता कुंती ने भोजन नहीं किया, जिसके कारण भीम को भी भूखा रहना पड़ा था। ऐसे में भीम ने एक युक्ति खोजी और पेड़ की जड़ में मिट्टी के लोटे को उल्टा रखकर शिवलिंग के रूप में दर्शाया, जिसकी पूजा-अर्चना के बाद माता ने भोजन किया। तभी से यह लोटेश्वर महादेव के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के निकट एक तालाब है, जिसे लोटेश्वर तालाब के रूप में और समग्र क्षेत्र को लोटेश्वर क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है।
आज से ३१ वर्ष पूर्व मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया। उस समय खुदाई के दौरान ईंट निकली थी। पुराना मंदिर छोटा था। मंदिर के निकट तालाब भी है, जो लोटेश्वर तालाब के रूप में प्रसिद्ध है। तालाब के किनारे पर भी खुदाई के दौरान ईंट निकली थी, जिसे देखकर माना जाता है कि यहां पर प्राचीन में कोई गांव वसा था, जिसी किसी कारण से नष्ट हो गया होगा। मंदिर में महाशिवरात्रि, गौरी-जयापार्वती व्रत, रामनवमी, नवरात्र एवं दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर शोभायात्रा निकाली जाती है। यहां पर भक्तों की रोजाना भीड़ रहती है।
-चिमनभाई चावड़ा, मंदिर के संचालक