धूल चेहरे पर थी आईना साफ करता रहा।
पीएम के ये शेर पढ़ने के बाद जावेद अख्तर समेत कई उर्दू शायरी के जानने वाले सामने आए। सभी ने कहा कि ये शेर मिर्जा गालिब का नहीं है, गालिब ने कभी ऐसी हल्की तुकबंदी नहीं की। दरअसल, ये किस्सा सुनाने का हमारा एक मकसद है। वो ये कि मिर्जा गालिब के नाम से इतनी शायरी बाजार में घूम रही हैं कि पीएम भी उसमें फंस गए।
गालिब की नज्म है तुम जियो हजारों साल
बर्थडे की पार्टी में चलने वाला एक बेहद मशहूर गाना है- ‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार।’ 1959 में आई बिमल रॉय की फिल्म ‘सुजाता’ के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने इसे लिखा था। दरअसल, मजरूह के लिखने से करीब डेढ़ सौ साल पहले गालिब ने ये बाहशाह बहादुर शाह जफर की तारीफ करते हुए लिखा था। जिसकी एक लाइन से मजरूह साहब ने ये गीत लिखा।
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मिर्जा असदुल्लाह खान गालिब की आज पुण्यतिथि है। आगरा में जन्मे और दिल्ली में 15 फरवरी, 1869 को दुनिया छोड़ गए। गालिब की पुण्यतिथि पर हम आपको गालिब की तुम जियो हजारों साल लिखने का दिलचस्प किस्सा बता रहे हैं।जफर के दरबार से तनख्वाह पाते थे गालिब
मिर्जा गालिब आगरा से होते हुए उस दौर में दिल्ली पहुंचे जब मुगलों का सूरज ढल रहा था और अंग्रेजों का सितारा अपने उरूज पर था। 1840-50 के दशक में दिल्ली में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का राज था। गालिब को जफर के दरबार से कुछ तनख्वाह मिलती थी। उनको ये तनख्वाह आज की तरह हर महीने नहीं मिलती थी, बल्कि हर छह महीने पर मिलती थी।
नज्म लिखकर कहा- नहीं हो रहा गुजारा
गालिब तो गालिब ठहरे, एक नज्म लिखी बादशाह जफर के नाम। नज्म में अपनी शराब पीने समेत तमाम खर्च भी लिख डाले, तनख्वाह कम होने की बात लिखी। तनख्वाह हर महीने देने की दरख्वास्त लगाने के साथ ही बादशाह की जमकर तारीफ भी कर दी। नज्म कुछ इस तरह से है-
ऐ जहांदारे आफताब आसार
था मैं एक बेनवा-ए-गौशानशीं
था मैं एक दर्दमंद सीनाफिदार
तुमने मुझको जो आबरू बख्शी
हुई मेरी वो मेरी गर्मी-ए-बाजार
हुआ मुझसा जर्रा-ए-नाचीज
रुहशना से सबाबते-ओ-सैयार
शाद हूं लेकिन अपने जी में
कि हूं बादशाह का गुलाम-ए-कारगुजार
खानाजाद और मुरीद और मद्दा
हमेशा से था ये अरीजा निगार
निस्बते हो गईं मुस्कखस चार
ना कहूं आपसे तो किस्से कहूं
मुद्दा-ए-जरूरी-उल-उजहार
कुछ तो जाड़े में चाहिए आखिर
तानादे बादे-जम अहरीर आजार
जिस्म रखता हूं है अगरचे नजार
कुछ खरीदा नहीं इस बरस
कुछ बनाया नहीं अबकी बार
भाड़ में जाएं ऐसे लैलो नहार
आग तापे कहां तलक इंसा
धूप खाए कहां तलक जांदार
मेरी तनख्वाह जो मुकर्रर है
उसके मिलने का है अजब हंजार
रस्म है मुर्दे की छमाही एक
खल्क का है इसी चलन पे मदार
और छमाही हो साल में दो बार
बसके लेता हूं कि हर महीने कर्ज
और रहती है सूद की तकरार
मेरी तनख्वाह में तिहाई का शरीक हो गया साहूकार
आज मुझसा नहीं जमाने में शायर-ए-नफ्सगो और खुशगुफ्तार
कहर है अगर करो ना मुझको प्यार
आपका बंदा और फिरूं नंगा
आपका नौकर और खाऊं उधार
मेरी तनख्वाह कीजिए माह-ब-माह
ताकि ना हो मुझे जिंदगी दुश्वार खत्म करता हूं अब दुआ पे कलाम
शायरी से नहीं मुझको सरोकार
तुम जियो हजारों बरस
हर बरस के दिन हों पचास हजार।
हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे-बयां और।