कहा जाता है कि एक बार वे”श्रीमद्भागवत”-कथा समारोह में पहुंचे। भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का सरस वर्णन सुनते-सुनते वे भाव विभोर हो गए। इसके बाद श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला ने उन पर ऐसा प्रभाव डाला कि वे श्रीकृष्ण के प्रेमी ‘रसखान’ बनकर रह गए। रसखान दिल्ली से श्रीकृष्ण की लीलाभूमि वृन्दावन गए। वहां गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के सत्संग ने उन्हें परमप्रेमी भक्त बना दिया। उनका शिष्यत्व स्वीकार कर उन्होंने अपना जीवन श्रीकृष्ण भक्ति तथा काव्य रचना के लिए समर्पित कर दिया।
एक बार रसखान गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए मंदिर में जाने लगे। द्वारपाल के कान में किसी ने कहा कि यह मुसलमान है। इसके प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाएगा। वह यह नहीं समझ पाया कि मुसलमान परिवार में जन्म लेने के बावजूद यह श्रीकृष्ण भक्ति में पककर रसखान बन चुका है। द्वारपाल ने मंदिर में नहीं जाने दिया। वे तीन दिन तक मंदिर के द्वार पर भूखे-प्यासे पड़े रहे कृष्ण ?्ण भक्ति के पद गाते रहे। कहा जाता है कि इस तरह अपने भक्त का अपमान देखकर श्रीनाथ जी के नेत्र लाल हो उठे थे। उन्होंने रसखान को गले लगाया और दर्शन दिए।
रसखान ने ब्रज भाषा में अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की लीलाओं का इतना सुबोध और सरस वर्णन किया है कि बड़े-बड़े धर्माचार्य भी उनके पदों को दोहराते हुए भावविभोर हो उठते हैं। भक्तकवि रसखान ने जहाँ अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है, वहीं उनकी ललित लीलाओं की विभिन्न झाकियाँ प्रस्तुत कर भक्तजनों को अनूठे प्रेम रस में डुबो देने में वे पूर्ण सक्षम रहे हैं। उनके लिखे कवित्त और सवैये ‘सुजान रसखान’ ग्रंथ में संग्रहीत हैं। ‘प्रेमवाटिका’ ग्रंथ उनके दोहों का संकलन है।
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू, तैसि बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना, पग पैजनिया कटि पीरि कछौटी॥
वा छवि को रसखान बिलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी॥
अर्थात, कृष्ण धूल भरे आंगन में खेलते- खाते हुए फिर रहे हैं। घूंघरु बज रहे हें। हाथ में माखन रोटी है। कौआ आकर कृष्ण जी के हाथ से रोटी लेकर उड़ जाता है। वे उस कौवे के भाग्य पर ईर्ष्या करते हैं जो साक्षात् परब्रह्म बालकृष्ण के हाथ से रोटी छीनकर ले भागा। इस दृश्य को रसखान ने हृदयस्पर्शी बना दिया है।
मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं गोकुल गाँव के ग्वालन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं बसेरो करौं, मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।
अर्थात रसखान कहते हैं कि (अगले जन्म में) मैं यदि मनुष्य हूँ तो मैं गोकुल के ग्वालों और गायों के बीच रहना चाहूँगा। यदि मैं पशु हूँ तो मै नन्द की गायों के साथ चरना चाहूँगा। अगर पत्थर भी बनूं तो भी उस पर्वत का बनूँ जिसे हरि ने अपनी तर्जनी पर उठा ब्रज को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था। और यदि मैं पक्षी हूँ तो मैं यमुना के तट पर किसी कदम्ब वृक्ष पर बसेरा करूँ।
प्रस्तुति
हरिहर पुरी
मठ प्रशासन
श्रीमनकामेश्वर मंदिर