अक्सर भारतीय परिवारों में इस तरह के इश्यूज सामने आते हैं कि नौकरीपेशा बहू घर की देखभाल सही तरीके से नहीं करती। सास—ससुर, बच्चों व पति का ध्यान अच्छे से नहीं रखती। सभ्य समाज में भी कामकाजी महिलाओं को लेकर इसी तरह की सोच हैं कि वह घर से ज्यादा आॅफिस को प्राथमिकता देती है। यह बात सही है कि भारतीय समाज में महिलाओं की प्राथमिक भूमिका घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल करना माना जाता रहा है। यदि वह गृहिणी हैं, तो पूरी तरह से घर के कामों के लिए समर्पित हैं। ऐसे में समाज को घर के कामों में महिलाओं के अद्वितीय योगदान को स्वीकार करना चाहिए, न सिर्फ उनका सहायक बनना चाहिए, बल्कि आभार भी जताना चाहिए।
बचपन से ही हमें यह सिखाया जाता है कि महिला नौकरीपेशा हो या गृहिणी, घर की जिम्मेदारी उसी की है। यदि महिलाएं घरों को नहीं संभालेंगी तो डोनली के वीडियो की तरह हमारे अधिकांश घर वार—जोन में बदल जाएंगे। हम देखते हैं कि जब एक महिला एक दिन से अधिक समय तक बाहर रहती हैं तो खाना—बनाने से लेकर साफ—सफाई तक के कामों में कितनी परेशानी होती है। पितृसत्ता ने समाज में लैंगिक भूमिकाएं थोप दी हैं। महिलाएं बिना किसी वेतन और ब्रेक लिए बिना लगातार काम करती रहती हैं। अब समय आ गया है कि पितृसत्तात्मक मानसिकता से बाहर निकलें। महिलाओं के हर एक मिनट के योगदान को पहचानें। महिलाएं समर्थन, समझ और समान योगदान के अलावा कुछ भी अपेक्षा नहीं करतीं। हमें उनका समर्थन शुरू करना चाहिए और आलोचना करने के बजाय घरेलू कामों में समान रूप से योगदान देना चाहिए।