ऊंट की कुर्बानी देखने के लिए उमड़ता है हुजूम
वाराणसी के कई इलाकों में बकरीद के दूसरे और तीसरे दिन चार ऊंटों की कुर्बानी दिए जाने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है। ऊंट की कुर्बानी को देखने के लिए सुबह से लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। दूसरे शहरों से भी लोग यहां ऊंट की कुर्बानी देखने आते हैं।
वाराणसी के कई इलाकों में बकरीद के दूसरे और तीसरे दिन चार ऊंटों की कुर्बानी दिए जाने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है। ऊंट की कुर्बानी को देखने के लिए सुबह से लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। दूसरे शहरों से भी लोग यहां ऊंट की कुर्बानी देखने आते हैं।
ऊंट का खून ले जाते हैं घर कुर्बानी देने वाले अब्दुल अजीम की मानें तो 1912 में उनके दादा के जमाने में इसकी शुरूआत सात लोगों ने मिलकर की थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। इसे देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग इकठ्ठा होते हैं। कुर्बानी के बाद लोग ऊंट का खून लेते हैं। खून से भींगे कपड़ों को लोग अपने घर में साल भर रखते हैं। मान्यता है कि ये उनके परिवार को बुरी बलाओं से बचाता है।
क्यों दी जाती है कुर्बानी?
वाराणसी के मौलाना मो. कलीम के मुताबिक, सैकड़ों साल पहले हजरत इब्राहिम को स्वप्न आया कि अपने बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान कर दो। सपने को हकीकत का रूप देने वो निकल पड़े। रास्ते में तीन शैतान मिले जो उन्हें इस काम से रोकना चाहते थे। ऐसा चमत्कार हुआ कि बेटे को अल्लाह ने बचा लिया। उसकी कुर्बानी रुक गई। उसकी जगह डुम्बा (भेड़) प्रकट हो गया और उसकी कुर्बानी दे दी गई। इसलिए कहा जाता है कि उनका मन सच्चा था। सच्ची इबादत से एक बड़ी समस्या टल गई। उनके अंदर की बुराई खत्म हो गई और वह जीवन भर सच्चाई के रास्ते पर चले।
– तभी से कुर्बानी की परंपरा चली आ रही है।
वाराणसी के मौलाना मो. कलीम के मुताबिक, सैकड़ों साल पहले हजरत इब्राहिम को स्वप्न आया कि अपने बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान कर दो। सपने को हकीकत का रूप देने वो निकल पड़े। रास्ते में तीन शैतान मिले जो उन्हें इस काम से रोकना चाहते थे। ऐसा चमत्कार हुआ कि बेटे को अल्लाह ने बचा लिया। उसकी कुर्बानी रुक गई। उसकी जगह डुम्बा (भेड़) प्रकट हो गया और उसकी कुर्बानी दे दी गई। इसलिए कहा जाता है कि उनका मन सच्चा था। सच्ची इबादत से एक बड़ी समस्या टल गई। उनके अंदर की बुराई खत्म हो गई और वह जीवन भर सच्चाई के रास्ते पर चले।
– तभी से कुर्बानी की परंपरा चली आ रही है।