राजस्थान के कई इलाकों में तरबूज को मतीरा के नाम से जाना जाता है और राड़ का मतलब लड़ाई होती है। आज से 378 साल पहले 1644 ईस्वी में यह अनोखा युद्ध हुआ था। तरबूजे के लिए लड़ी की यह लड़ाई दो रियसतों के लोगों के बीच हुई थी।
साल 1644 में बीकानेर और नागौरकी सीमाएं एक-दूसरे से सटी हुई थीं। बीकानेर का सीलवा गांव और नागौर रियासत का जाखणियां गांव इन दोनों रियासतों को आपस में जोड़ता था। इसी साल के मई-जून में एक मतीरा यानी तरबूज बीकानेर रियायत के आखिरी गांव में लगाया गया। तरबूज की बेल फैलते-फैलते दूसरी रियासत के सीमावर्ती गांव में पहुंच गई। तरबूज के पकने पर दोनों गांवों के लोगों में उसे लेने को लेकर झगड़ा होने लगा। एक का कहना था कि मतीरा हमारी जमीन पर उगा है। वहीं दूसरे पक्ष का कहना था कि उगा कहीं भी हो, बेल तो हमारे यहां फैली है।
इस बात पर झगड़ा इतना बढ़ा कि दोनों तरफ के गांव के लोग रात-रातभर जागकर पहरा देने लगे कि दूसरे गांव के लोग तरबूज न उखाड़ लें। फैसला न हो पाने पर आखिरकार बात दोनों रियासतों तक पहुंच गई और फल पर शुरू ये झगड़ा युद्ध में बदल गया। इसमें दोनों रियासतों के हजारों सैनिकों की जानें गईं। अंत में इस युद्ध को बीकानेर की रियासत ने जीता।
इस युद्ध में बीकानेर की सेना की अगुवाई रामचंद्र मुखिया ने की जबकि नागौर की अगुवाई सिंघवी सुखमल ने की थी, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि दोनों रियासतों के राजाओं को इसेक बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
जब यह लड़ाई चल रही थी, तब बीकानेर के शासक राजा करणसिंह एक अभियान पर थे, तो वहीं नागौर के शासक राव अमरसिंह मुगल साम्राज्य की सेवा में तैनात थे। जब इस लड़ाई के बारे में दोनों राजाओं को जानकारी मिली, तो उन्होंने मुगल राजा से इसमें हस्तक्षेप करने की अपील की। लेकिन जब यह बात मुगल शासकों तक पहुंची तब तक युद्ध छिड़ गया था।