मैरी के बारे में हैरान कर देने वाली बात यह है कि उसने जहां-जहां खाना बनाने के काम किया वहां-वहां लोग टाइफाइड बुखार से ग्रसित हुए। यही वजह है कि स्वास्थ अधिकारियों का शक मैरी पर गया। काफी खोज करने के बाद डॉक्टरों को पता चला कि टाइफाइड कैसे फैला। टाइफाइड मैरी लोगों की नज़रों में तब आई जब 1906 में एक परिवार ने न्यूयॉर्क सिटी में एक घर किराए पर लिया। यह परिवार 10 सदस्यों का था जिसमें से 6 सदस्य टाइफाइड से ग्रसित हो गए। हैरान कर देने वाली बात यह थी कि उस क्षेत्र में उस समय तक कोई टाइफाइड से ग्रसित नहीं हुआ था। वहां के स्वास्थ अधिकारियों ने जांच करना शुरू किया। टाइफाइड से ग्रसित परिवार का पूरा घर ऊपर से नीचे तक साफ किया गया। रोग के संक्रमण को लेकर सारी चीजों का परिक्षण किया गया। जांच में सब सही था लेकिन इन सब में एक चीज थी जिसकी अभी तक जांच नहीं हुई थी। वह थी इस घर की कुक मैरी। जो बीमारी के फैलने से एक हफ्ते पहले अचानक ही काम छोड़कर चली गई थी।
आगे की जांच में सामने आया कि मैरी लगातार नौकरियां बदल रही थी। स्वास्थ अधिकारियों ने उसका नाम चलता-फिरता ‘टाइफाइड बम’ रख दिया था। अब मैरी की तलाश हर जगह की जाने लगी। जांच अधिकारियों का कहना था यह कोई संयोग तो नहीं कि जिस-जिस जगह उसने काम किया उस-उस जगह लोग टाइफाइड से ग्रसित हुए। जांच अधिकारियों का कहना था कि जब वह खाना बनाती थी तब उसके हाथ के जरिए टाइफाइड के कीटाणु खाने में मिल जाते थे। कई सबूतों के साथ मैरी को एक दिन गिरफ्तार कर लिया गया। उसे नजबंद कर नॉर्थ ब्रोथेर आइलैंड में रखा गया। मैरी ने दलील दी कि उसका इन सब में कोई हाथ नहीं है। उसका कहना था कि वह कई बार डॉक्टर को दिखा चुकी है। उसका कहना था कि उसे कभी टाइफाइड न था न है फिर वह कैसे इस बीमारी को फैला सकती है। उसने न्यूयॉर्क के स्टेट बोर्ड को कई बार कोर्ट में चुनौती भी दी।
1910 में वह केस जीत गई और उसे इस शर्त पर रिहा किया गया कि वह आगे कभी कुक का काम नहीं करेगी। कुछ समय तक वह कपड़े धुलने का काम करती रही लेकिन उसे बहुत कम तनख्वा मिलती थी। इस वजह से उसने फिर से कुक का काम शुरू कर दिया। उसने पहले अपना नाम बदला और मैरी ब्राउन नाम से एक अस्पताल में कुक के तौर पर काम करने लगी। 1915 में 22 डॉक्टर और कुछ नर्स टाइफाइड से ग्रसित हो गए जिसमें से दो की मौत भी हो गई। कुक की पहचान की गई तो फिर मैरी का ही नाम सामने आया। इसके बाद उसे 30 साल तक नज़रबंद रखा गया जहां सन 1938 में 69 की उम्र में वह निमोनिया से मर गई। उसके मरने के बाद भी यह रहस्य बरकरार रहा कि आखिर उसके रहते कैसे लोग टाइफाइड से ग्रसित होते रहे जबकि वह टाइफाइड से संक्रमित थी ही नहीं।