वाराणसी. कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जानें कितनों को न केवल साहित्यकार बना गए, अपितु कितनों की रोजी रोटी चलने लगी। बड़ा से बड़ा संस्थान हो या राजनीतिक हर किसी ने भुनाया। हर साल कुछ न कुछ घोषणाएं हो जाती हैं मुंशी जी की जयंती पर। लेकिन हकीकत उससे कहीं दूर, माटी से जुड़े इस साहित्यकार की जन्मस्थली आज भी जस की तस है। एक शोध व अध्ययन केंद्र संचालित करने की बात चली। वह योजना 11 साल से धूल खा रही है। तब से जाने गंगा का कितना मटमैला पानी बंगाल की खाड़ी में बह गया पर जिन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी उन्हें इसकी सुधि नहीं आई। अब 31 जुलाई आने को है। जिन कलेक्टर के जमाने में यह योजना आई थी अब वे फिर से सक्रिय हैं, पर उनके हांथ बंधे हैं, जिला प्रशासन की बात होती तो शायद उनकी हनक काम आ जाती पर मामला केंद्रीय विश्वविद्यालय से जुड़ा होने के नाते वह भी खामोश हैं। यह दीगर है कि कुछ साहित्यकारों और कुछ अन्य जागरूक नागरिकों जिनमें मुंशी जी के पौत्र भी शामिल हैं ने तय किया है कि अगर 31 जुलाई तक इस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं हुई तो वे खुद ही कुछ इंतजाम कर लेंगे। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने रखी थी आधारशिला शहर के बुद्धिजीवी बताते हैं कि इतिहास गवाह है कि 1958 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने शिलान्यास किया था। लेकिन हिंदी साहित्य की समृद्धि की ठेकेदार संस्था की बदौलत वह कूड़े की ढेर में चला गया। फिर 2005 में 31 जुलाई को एक और अवसर आया। तब भी समाजवादी पार्टी की ही सरकरा थी राज्य में और केंद्र में एनडीए की सरकार। तत्कालीन मुख्यमंत्री थे मुलायम सिंह यादव। एक पहल हुई। काशी के बुद्धिजीवियों को लगा कि उनका अथक प्रयास आकार लेगा। प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन केंद्र का शिलान्यास हुआ। मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव, केंद्रीय संस्कृति मंत्री जयपाल रेड्डी, सांसद सरला माहेश्वरी, साहित्यकार नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र, चन्द्रबली सिंह, कृष्ण कुमार राय, आदि तमाम साहित्यकार शाक्षी बने। तत्कालीन जिलाधिकारी नितिन रमेश गोकर्ण और जिला संस्कृति अधिकारी डॉ.लवकुश द्वीवेदी ने भी योजना को मूर्त रूप देने की कवायद शुरू की। लेकिन वक्त गुजरता गया, बात जहां से शुरू हुई थी वहीं अटकी पड़ी है। 2005 से 2016 आ गया पर शोध एवं अध्ययन केंद्र आकार न ले सका। कमिश्नर भी दुःखी तब के डीएम अब के कमिश्नर हैं, 30 जून को गए मुंशी जी के गांव लमही। वहां का मंजर देख वह भी चकित थे। साथ ही दुःखी भी। कुछ हिदायतें दीं प्रशासनिक महकमें को। लेकिन मामला जहां अटका है वहां उनका हुक्म चलता नहीं। वह एक केंद्रीय स्वायत्त संस्था है। केंद्र सरकार से गवर्न होती है। फिर का दौरा किये थे । वहां की अव्यस्था से दुखी थे । काशी के बुद्धिजीवी मिले कमिश्नर से कमिश्नर की सक्रियता देख प्रेमचन्द शोध एवं अध्ययन केंद्र, लमही,के संदर्भ में काशी के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों का प्रतिनिधि मंडल मंडलायुक्त नितिन रमेश गोकर्ण से मिला। इसमें प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश सचिव संजय श्रीवास्तव, वाराणसी जिला अध्यक्ष गोरख नाथ पाण्डे, जनवादी लेखक संघ के जिला सचिव महेंद्र प्रताप सिंह और मुंशी प्रेमचन्द के पौत्र प्रदीप कुमार राय शामिल थे। सभी दरयाफ्त की कि शोध एवं अध्ययन केंद्र सुचारु रूप से चले। कमिश्नर को अतीत के झरोखे में भी ले गए। लेकिन कमिश्नर भी बस इतना ही भरोसा दे पाए कि कोशिश करता हूं। कुलपति से बात करता हूं। शोध एवं अध्ययन केंद्र को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी है बीएचयू की दरअसल शोध एवं अध्ययन केंद्र को मूर्त रूप देने की ज़िम्मेदारी काशी हिन्दू विश्व विद्यालय को दी गयी है। इसके लिए प्रो. कुमार पंकज को अधिकृत किया गया है। डॉ. आनंद प्रकाश तिवारी कहते हैं कि बीएचयू को इतना समय कहां जो मुंशी जी को स्मरण करे। उन्होंने कहा कि अब बहुत हो गया, बीएचयू कुछ करे या न करे, हम लोग खुद इसका इंतजाम करेंगे।