काशी का यही पक्का महाल विकास की भेंट चढ़ने जा रहा है। सहमे हैं असल काशीवासी।
वाराणसी•Jun 17, 2018 / 02:24 pm•
Ajay Chaturvedi
असल काशी पक्के महाल में ही बसती है। ऐसा कोई स्टेट नहीं जिसका प्रतिनिधित्व इस पक्के महाल में न हो। मां गंगा के सुरम्य तट पर बसी काशी और खास तौर पर पक्का महाल। घाटों से इसका सीधा सरोकार है। पूर्व में विभिन्न राजा महाराजाओं द्वारा बनाए गए घाट और उससे सटी गलियों में बसा दिए अपने-अपने राज्य के नागरिकों को। इतना ही नहीं लगभग हर घाट के पास संबंधित रियासत की प्राचीन इमारत भी है जिसे उसी नाम से जाना जाता है। अद्भुत कलाकारी दिखेगी इन राज महलों की दीवारों पर। ऐसे ही नहीं इसे लघु भारत कहा जाता। सचमुच में यहां पूरे देश का प्रतिनिधित्व होता है। विविधता में एकता इन गलियों की विशेषता है। काशी का अल्हड़पन यहीं मिलेगा तो बनारस ही नहीं देश का अर्थ तंत्र से लेकर सियासत तक यहीं से तय होता है। क्या नहीं है इस पक्के महाल की गलियों में। सारे तीर्थ स्थल यहीं हैं। विश्व प्रसिद्ध बनारसी साड़ी की गद्दी इन्हीं संकरी गलियों में है। विपरीत से विपरीत परिस्थियों में कैसे जीया जाता है यह यहां के लोगों से सीखने को मिलता है। इंसानियत का तकाजा यहीं देखने को मिलता है। लेकिन आज की तारीख में ये बनारसीपन ही मिटाने पर जुट गए हैं कुछ सियासतदां। कुछ प्रशासनिक अफसर। काशी की पहचान को ही विलुप्त करने पर तुल गए हैं। हजारों हजार साल पुरानी रवायत को मिटाने की साजिश चल रही है, जिससे पक्का महाल इन दिनों सहमा सा है। उसके वजूद पर संकट जो आन पड़ा है। जलकल विभाग का पेयजल भले न पहुंचे पर हर दूसरे घर में कुआं मिल जाएगा। कुंएं का मीठा पानी मिल जाएगा।
काशी का इतिहास जहां हजारों साल पुराना है तो वहीं इसकी संस्कृति भी अपने भीतर अनेक विविधता समेटे हुए है। इसकी जीवंतता को आत्मसात करना हो तो आपको काशी के पक्का महाल की जीवन शैली को समझना होगा। काशी की कल्पना पक्का महाल के बिना संभव ही नहीं है। यह दीगर बात है कि आज काशी का यही पक्का महाल विकास की भेंट चढ़ने जा रहा है। पक्का महाल की अवधारणा गंगा के किनारे अस्सी से राजघाट तक की है। यह प्राचीन इलाका खुद में कई संस्कृति को समेटे हुए है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तकरीबन 12 किलोमीटर के दायरे का सफर अस्सी यानी असि नदी संगम से शुरू होता है। यहां असि संगमेश्वर महादेव का मंदिर भी है। फिर 84 घाटों से होते हुए यह सफर पूरा होता है आदि केशव संगम पर जहां आदिकेशव यानी विष्णु जी का मंदिर है।
असि संगम से वरुणा संगम के बीच भारत के प्रमुख प्रांतों का आभास होता है। बंगाली, गुजराती, दक्षिण भारतीय, नेपाली समुदाय के अपने अपने मुहल्ले हैं। ये सभी समुदाय रहते हैं अपने लोगों के बीच में, मगर यहां बसने के बाद अब पूरी तरह से खांटी बनारसी हो चुके हैं। पक्का महाल अपनी जीवंत शैली के लिए मशहूर है। यहां की जीवन शैली को महसूस करने सात समंदर दूर से भी लोग खिंचे चले आते हैं। इतना ही नहीं, पक्का महाल और उसकी गलियां राजस्व बढ़ाने का भी एक बड़ी माध्यम हैं तो यहां रहने वालों के आर्थिक विकास का रास्ता खोलती हैं। पक्का महाल में चलने वाली व्यापारिक गतिविधियों का बनारस को मिलने वाले राजस्व में बड़ा योगदान है। माना जाता है कि बनारस को मिलने वाले राजस्व में 20 से 25 फीसदी हिस्सेदारी पक्का महाल की होती है। पक्का महाल की जीवन शैली भी अन्य महानगरों से अलग है। गलियों में घुसते ही आपको अल्हड़ बनारसी मस्ती का एहसास होने लगता है। गली के नुक्कड़ और चबूतरों पर लोगों की जुटान और अपनी ही मस्ती में जीवन जीने का अंदाज वाकई कई तरह की अनुभूतिय कराता है।
काशी की अधिकांश गलियां ऐसी हैं जहां सूर्य की किरण नहीं पहुंचती। कुछ गलियां ऐसी हैं जिनमें से दो आदमी एक साथ गुजर नहीं सकते। इन गलियों की बनावट देखकर कई विदेशी इंजीनियर चकरा गए। जो लोग यह कहते हैं कि मुंबई, कोलकाता की सड़कों पर खो जाने का डर रहता है, वे काशी की गलियों का चक्कर काटें तो दिन भर के बाद शायद ही डेरे तक पहुंच पाएंगे। आज भी ऐसे अनेक बनारसी मिलेंगे जो बनारस की सभी गलियों को छान चुके हैं। इन गलियों से गुजरते समय जहां कहीं चूके तो भटकना तय है। फौरन दूसरी गली में जा पहुंचेंगे। कोलकाता, मुबई की तरह सड़क की मोड़ पर अमुक दुकान, अमुक निशान रहा याद रहने पर मंजिल तक पहुंच सकते हैं। पर बनारस में इस तरह के निशान-दुकान-साइनबोर्ड भीतरी महाल में नहीं मिलेंगे। हर गली एक सी नजर आती है। नतीजा यह होगा कि काफी दूर आगे जाने पर रास्ता बंद मिलेगा। उधर से गुजरने वाले आपकी ओर संदेह भरी दृष्ट से देखेंगे। नतीजा यह होगा कि आपको पुन: गली के उस छोर तक आना पड़ेगा जहां से आप गड़बड़ाकर मुड़ गए थे। कुछ गलियां ऐसी हैं कि आगे बढ़ने पर मालूम होगा कि आगे रास्ता बन्द है, लेकिन गली के छोर के पास पहुंचने पर देखेंगे कि बगल से एक पतली गली सड़क से जा मिली है। अकसर इन गलियों में जब खो जाने में आता है, खासकर रात के समय, तब लगता है जैसे ऊंचे पहाड़ों की घाटियों में खो गए हैं। गलियों का तिलिस्म इतना विचित्र है कि बाहरी व्यक्ति को कौन कहे स्थानीय भी जाने में हिचकते हैं। कुछ गलियां ऐसी हैं जिनसे बाहर निकलने के लिए किसी दरवाज़े या मेहराबदार फाटक के भीतर से गुजरना पड़ता है।
बनारस में सिर्फ विश्वनाथ मंदिर ही नहीं है, बल्कि समस्त भारत के देवी-देवता और तीर्थस्थान भी हैं। यहां 34 कोटि देवी देवता मिल जाएंगे। चारों धाम की यात्रा का पुण्य लाभ इस काशी में ही मिल सकता है। यहां बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वर, जगन्नाथ जी, मां कामाक्षा, काली, पशुपतिनाथ, कृष्ण कन्हैया, द्वारकाधीश, महालक्ष्मी और मा दुर्गा का दिव्य दर्शन हो जाएगा। गंगोत्री, पुष्कर, वैद्यनाथ, भास्कर और मानसरोवर आदि तीर्थस्थान भी हैं तो गोस्वामी तुलसीदास जी का बनवाया हुआ संकटमोचन का मन्दिर है, जहां का बेसन का लड्डू जगत प्रसिद्ध है। गोपाल मंदिर का ठोर (खास तरह की मिठाई) बिना दांत का व्यक्ति खा जाता है और दुर्गाजी का मंदिर जहां रामजी की सेना रहती है। बनारस के प्रमुख मन्दिरों में हैं। काशी करवट का शिव मन्दिर तो इतना प्रसिद्ध है कि दोपहर के वक्त शिवजी बिजली की रोशनी में दर्शन देते हैं। यहां का इतिहास आज भी बड़े-बूढ़ों की जुबान पर है। बराहीदेवी के मंदिर में औरतें नहीं जाने पातीं। कहा जाता है किसी समय वे एक लड़की को निगल गयी थीं। चूंकि उनके मुंह में उस लड़की की चुनरी लटकी हुई थी, इसलिए यह पता चल गया कि वे निगल गयी हैं, वरना लड़की का गायब होना रहस्य बना रह जाता। इस घटना के बाद से औरतें ऊपर से दर्शन करती हैं, केवल पुरुष भीगे हुए वस्त्र पहनकर नीचे जाते हैं। काशी में आदि विश्वेश्वर का भी मंदिर है जहां गोपाष्टमी के समय शहर की वारांगनाएं मुफ्त में आकर मनोविनोद करती हैं। पास ही सत्यनारायण मंदिर में श्रावण के झूले में भगवान का ऐसा लाजवाब शृंगार होता है कि देखते रह जाएंगे। लाट, भूत, आनन्द और बटुक आदि आठ भैरव, सोलह विनायक और नव दुर्गा, नन गौरी के मंदिर अपने-अपने मौसम में बनारस के नागरिकों को बुलाते हैं।
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