सम्राट विक्रम के पुरातात्विक साक्ष्यों से संबंधित तथ्य बताए
मुख्य अतिथि सिंहस्थ प्राधिकरण अध्यक्ष दिवाकर नातू और विक्रमादित्य शोध संस्थान के निदेशक डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित और प्रो. धवन विशेष रूप से उपस्थित थे। स्वागत भाषण प्रो. आरके अहिरवार ने दिया। संगोष्ठी में शोध विद्वानों द्वारा शोध पत्र प्रस्तुत किए, जिनमें सम्राट विक्रम के पुरातात्विक साक्ष्यों से संबंधित तथ्य बताए। प्रो. ठाकुर ने बताया कि विक्रमादित्य के काल में एक-एक घटनाक्रम से संबंधित मुद्राएं चलाई गई थीं। विक्रमादित्य ने उनके शासन के दसवें वर्ष में रुद्र महोत्सव मनाया था, जिन्हें सिक्कों में अंकित किया गया है। ये मुद्राएं ही एक बहुत बड़ा प्रमाण हैं कि विक्रमादित्य वास्तव में थे। उस समय मुद्राएं संपूर्ण देश में संचार का माध्यम थी। सम्राट विक्रमादित्य के समय के कई आभूषण, रत्न और शिलालेख पुरातात्विक खुदाई में प्राप्त हुए हैं। अश्विनी शोध संस्थान में भी तीन क्विंटल से अधिक विक्रमादित्यकालीन सिक्के सील संरक्षित की गई हैं। इसके अलावा उस समय के कई अस्त्र-शस्त्र भी प्राप्त हुए हैं।
पुरातात्विक साक्ष्यों की जरूरत
प्रो. भारद्वाज ने कहा कि इतिहास में कई शासकों द्वारा सम्राट विक्रमादित्य की उपाधि धारण की गई, जिस कारण मूल विक्रमादित्य को काल्पनिक मान लिया गया। विक्रमादित्य के इतिहास के प्रमाणीकरण के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों की जरूरत है। इसके लिए उज्जैन के पुरातत्वविदों द्वारा प्रयास किए गए और वे आगे भी जारी रहेंगे। विक्रम संवत के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के और अनेक आभूषण प्राप्त हुए हैं। उज्जयिनी के प्राचीन सिक्कों में दण्डधारी मुकुट पहने सम्राट विक्रमादित्य को बताया गया है। दिवाकर नातू ने कहा कि शोध विद्यार्थी इस तरह की शोध संगोष्ठियों का लाभ लें और यहां से अर्जित ज्ञान को सभी के साथ बांटें तभी अधिक से अधिक लोग इतिहास से जुड़ सकेंगे।
आधुनिक शिक्षा पद्धाति से आ रही प्राचीन परंपरा में संदेह की प्रवृत्ति
डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित ने कहा कि आधुनिक शिक्षा पद्धति ने प्राचीन भारतीय परम्परा पर सन्देह करने की प्रवृत्ति को जन्म दिया है। इसी कारण सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व भी संशय के घेरे में आ गया। विक्रमादित्य के अस्तित्व से संबंधित कई साक्ष्य मिले हैं और भविष्य में भी पुरातत्वविदों को मिल सकते हैं। सन 1975 में पं. विष्णु श्रीधर वाकणकर को विक्रमादित्यकाल की एक सील मिली थी, जिसमें सम्राट विक्रमादित्य का नाम संस्कृत में अंकित था। विक्रम विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो. एचपी सिंह ने कहा कि प्राचीन इतिहास के बारे में जानने के लिए वैज्ञानिक उपकरणों और कार्बन डेटिंग का इस्तेमाल शोधार्थियों को करना चाहिए। इतिहास को कभी भी संभावनाओं से न जोड़ते हुए निश्चितता से जोडऩे की आवश्यकता है। सम्राट विक्रमादित्य के प्राचीन इतिहास से संबंधित शोधपत्र महज स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के जर्नल में प्रकाशित करने की आवश्यकता है, तभी उज्जयिनी के इतिहास से लोग पुन: परिचित हो सकेंगे। कई पुरातत्वविदों पर सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को प्रमाणित किया है। ये भी पता चला है कि विक्रमादित्य ने ही कृत संवत बनाया, जो बाद में मालवा संवत और फिर विक्रम संवत कहलाया जाने लगा। आभार प्रदर्शन डॉ. रमण सोलंकी द्वारा किया गया।
चित्रों में उकेरे सम्राट विक्रम
माधव महाविद्यालय के गांधी सभागृह में बुधवार को विक्रम उत्सव के अन्तर्गत चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित की गई। इसमें विभिन्न महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं और अन्य चित्रकारों ने उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य को अपनी कल्पनाओं के माध्यम से कागज पर उकेरकर कई सुन्दर चित्र बनाए।