एलडीसी की नौकरी के दरम्यिान एक मर्तबा बस में किसी ने मुझे तम्बाकू बनाकर खिलाई। उसके हाथों में कालापन देखकर मन अजीब सा हुआ। बात है सन् 1980 की। क्लिक हुआ कि क्यों नहीं ऐसी रेडिमेड तंबाकू बनाएं कि हाथों में यूं मसलनी नहीं पड़े। एक शिक्षक साथी से 200 रुपए उधार लाकर 100 रुपए की तंबाकू खरीदी। उसे तैयार किया। फिर बात आई ब्रांड का नाम रखने की। उस समय भारत में लड़ाकू विमान मिराज की एंट्री हुई। एक पुस्तिका में उसका बड़ा सा फोटो देखा। बस, ऐसे नाम पड़ गया मिराज। मोमबत्ती से थैली पैक की और 25 पैसे कीमत की मिराज दुकानों तक पहुंच गई। टेस्ट पसंद आया और मांग बढ़ी तो कारोबार का कारवां बढ़ता चला गया।
मिराज बनाने का कार्य किराये के मकान में शुरू किया। प्रारंभिक दिन में तो जैसे एक-एक दिन मरने के समान था। शरीर नीला पड़ जाता। दिन भर उल्टियां होती। चक्कर आते। अस्पताल में भर्ती होता तो लोग कहते कि इसे जहर चढ़ गया है। यह जहर पता नहीं कितनी बार पिया लेकिन संघर्ष नहीं छोड़ा। थका, बैठा लेकिन मैं रुका नहीं। 27 वर्ष की उम्र का वो संघर्ष, जिन्दगी भर की खुशियां दे गया।
कुछ करने की ललक शुरू से ही थी। सोचता रहता। नमकीन बेचने का ख्याल आया। इंदौर से नमकीन लाई और यहां उसे छोटे-छोटे पैकेट में डालकर बेचा, लेकिन कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। फिर वह कार्य बंद कर दिया।
वहीं है, जहां से शुरू किया। वही मेरे नाथद्वारा की मिट्टी की खुशबू, वे ही पहचान के चेहरे और वे ही कार्मिक। हां, आंकड़े बदले हैं। 2 हजार करोड़ का टन ओवर है। आज यहां 10 हजार से अधिक कार्मिक हैं। रियल एस्टेड से लेकर एफएमसीजी में दस्तक दे दी है। सिने मॉल की शुरुआत भी रोचक तरीके से हुई। मेरी बनाई फिल्म एक फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। फिर क्या? स्वयं इस क्षेत्र में आ गया। अब तक 92 सिने मॉल खोल दिए हैं। पूरे देश में मिराज इसमें पांचवें पायेदान पर है।
एक परम चेतना के प्रति विश्वास है। यह विश्वास अंधा है। हालांकि मैं खुद तो लक्ष्यविहिन व्यक्ति हूं। निरंतर चलता रहता हूं, मंजिल के लिए नहीं क्योंकि मंजिल मिलने के बाद क्या बचेगा? कभी ख्वाब नहीं देखे, जो घटना घट रही है, उसे ही देखते जाएं। संघर्ष के दिनों में सूत्र मिला कि असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं किया।