मान्यता है कि यहां राजा तो उनके प्रतिनिधि के रूप से शासन किया करते थे। जौहर स्मृति संस्थान चितौडग़ढ़ के पूर्व संयुक्त मंत्री और अखिल भारतीय क्षत्रिय महासंघ प्रदेशाध्यक्ष कानसिंह सुवावा ने बताया कि परंपराओं के चलते उदयपुर के महाराणा को दीवाणजी कहा जाता था। ये राजा किसी भी युद्ध पर जाने से पहले एकलिंगनाथजी की पूजा-अर्चना कर आशीष अवश्य लिया करते थे। बड़े-बड़े तान्त्रिक और वेद ज्ञाताओं ने यहां की पूजा पद्धति को माना है।
साक्षी मानकर लिए ऐतिहासिक प्रण: इतिहास के अनुसार एकलिंगनाथ को ही साक्षी मानकर मेवाड़ के राणाओं ने अनेक बार ऐतिहासिक प्रण लिए थे। महाराणा प्रताप के जीवन में अनेक विपत्तियां आईं, किन्तु उन्होंने डटकर सामना किया। एक बार उनका साहस टूटने लगा था, तब अकबर के दरबार में उपस्थित रहकर भी अपने गौरव की रक्षा करने वाले बीकानेर के राजा पृथ्वी राज को, उद्बोधन और वीरोचित प्रेरणा से सराबोर पत्र का उत्तर दिया। उत्तर में कुछ विशेष वाक्यांश के शब्द आज भी याद किए जाते हैं… ‘तुरुक कहासी मुखपतौ, इणतण सूं इकलिंग, ऊगै जांही ऊगसी प्राची बीच पतंग।’
दो प्राचीन तालाब: यहां पर दो प्राचीन तालाब हैं, एक इन्द्र सरोवर और उदयपुर जाते समय बाघेला तालाब है। महाराणा मोकल ने अपने भाई भागसिंह के नाम पर इसका निर्माण कराया। इंद्र सरोवर के बारे में एक किवदंती है कि इंद्र को वृत्रासुर के मारने की ब्रह्म से ज्वर आने लगा तब उससे किसी प्रकार मुक्ति न देखकर बृहस्पति ने प्रश्न किया। कथा अनुसार ब्रह्म हत्या के प्रायश्चित की निवृत्ति के लिए एकलिंगजी की आराधना के लिए इंद्र ने पर्णकुटी बनाकर पास में एक तालाब खोजा। उसी को इंद्र सरोवर कहा गया है। इतना ही नहीं प्रसन्न होने पर इंद्र ने तालाब को फलदाता करने की प्रार्थना की तत्पश्चात उस तालाब का नाम इंद्र सरोवर नाम रख संपूर्ण फल देने वाले का गौरव एकलिंगजी ने प्रदान किया।
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चतुर्मुखी शिवलिंग की स्थापना: मन्दिर परिसर के बाहर मन्दिर न्यास द्वारा स्थापित एक लेख के अनुसार डूंगरपुर राज्य की ओर से मूल बाणलिंग के इंद्रसागर में प्रवाहित किए जाने पर वर्तमान चतुर्मुखी शिवलिंग की स्थापना की गई थी। एकलिंगनाथ का मंदिर उदयपुर से 22 किलोमीटर दूर कैलाशपुरी में स्थित है। प्राचीन परंपरा अनुसार महाराणा मंदिर में प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही सोने की छड़ी ले लेते। सावन में और ग्रीष्म ऋतु में बावड़ी से चांदी के घड़े में जल लाकर एकलिंगनाथ की जलेरी में जल अर्पित करते।
भोग के लिए एक लाख रुपए वार्षिक तय: भगवान के भोग के लिए महाराणा भूपालसिंह के काल तक एक लाख रुपए वार्षिक तय किया हुआ था। कभी खास मौकों पर महाराणा विशेष प्रबंध करते थे। बिना कोताही के भोग-पूजन आदि के लिए कुलगुरु के साथ एक नायब हाकिम प्रतिदिन निरीक्षण करते। एकलिंगजी की पूजा के लिए चार ब्रह्मचारी और एक गोस्वामी हैं। यहां महाराणा के कुल गुरु वैदिक तथा तान्त्रिक पद्धति से पूजा करते हैं। ऐसी पूजा भारत में कम स्थानों पर होती है।
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सबसे पहले एकलिंगनाथ के दर्शन: मेवाड़ के महाराणा प्रात:काल सबसे पहले एकलिंगनाथ चित्रपट के दर्शन करते थे। राजकीय कामकाज में एकलिंगजी लिखते थे। हाथी की सवारी में पहले एकलिंगनाथ का चित्रपट हाथी पर सोने के नाग के नीचे रहता था। कुछ घोड़े भी होते थे, जिन पर सवारी नहीं की जाती थी। ये एकलिंगनाथ के मान के लिए रहते थे।