scriptभगवान शिव और भस्मासुर की कहानी से प्रेरित है मेवाड़ का ये प्रसि‍द्ध लोकनाट्य | mewar's play gavri inspires From Lord shiva and bhasmasur story | Patrika News
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भगवान शिव और भस्मासुर की कहानी से प्रेरित है मेवाड़ का ये प्रसि‍द्ध लोकनाट्य

भगवान शिव और भस्मासुर की कहानी से प्रेरित है मेवाड़ का ये प्रसि‍द्ध लोकनाट्य

उदयपुरSep 06, 2019 / 01:02 pm

Pramod

भगवान शिव और भस्मासुर की कहानी से प्रेरित है मेवाड़ का ये प्रसि‍द्ध लोकनाट्य

भगवान शिव और भस्मासुर की कहानी से प्रेरित है मेवाड़ का ये प्रसि‍द्ध लोकनाट्य

प्रमोद सोनी / उदयपुर. (mewar’s play gavri)आदिवासी बहुल मेवाड़ क्षेत्र में भील जाति की अटूट श्रद्वा एवं उपासना का प्रतीक पारंपरिक (gavri)गवरी नाट्य की धूम इन दिनों परवान पर हैं। गवरी नृत्य उदयपुर, डूंगरपुर, राजसमंद, चित्तौडग़ढ़ एवं बांसवाड़ा जिलों में बसे आदिवासी भील समाज का धार्मिक संस्कार पूर्ण नाट्योत्सव है। सामाजिक मान्यता के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी भील समाज की आराध्यदेवी मां गोरज्या देवी के रुप में धरती पर आकर सवा महीने भ्रमण करती हैं।रक्षाबंधन के दूसरे दिन ठंडी राखी से गोरज्या माता की पूजा करके(mewar’s play gavri)भील समाज की ओर से गवरी नाट्य नृत्य शुरू होता है। सवा महीने तक विभिन्न गांवो में घूम-घूम कर गवरी नाट्य करते हैं। इस दौरान भील समाज के लोगों द्वारा मांस मदिरा का सेवन नहीं करना, चारपाई पर नहीं सोना, हरी सब्जी का सेवन नहीं करना, पैरो में जूते नहीं पहनना, स्नान नहीं करने तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने जैसे कड़े नियमों की पालना करते हैं।यह अच्छी वर्षा, अच्छी फ सलें, महामारी से पशुधन एवं मानव की रक्षा की कामना के लिए भी गवरी का अनुष्ठान करते हैं। यह लोकनाट्य भगवान शंकर और उनकी पार्वती की कहानी है, जो बुढिय़ा एवं राई के नाम से जाने जाते हैं। पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार एक बार (Lord shiva and bhasmasur story) भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न कर दूसरों को भस्म कर देने वाला एक कड़ा प्राप्त कर लिया था। पार्वती को पाने की लालसा में उसने भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा, लेकिन भगवान विष्णु ने मोहिनी के रुप धारण कर भस्मासुर को ही भस्म कर डाला। भस्म होते समय भस्मासुर ने एक वरदान मांगा जिसकी स्मृति में गवरी उत्सव मनाते हैं। (Lord shiva and bhasmasur story) भस्मासुर के प्रतीक के रूप में गवरी का नायक राई बुढिय़ा अपने मुंह पर उसका मुखौटा धारण कर समस्त गवरी का संचालन करते हैं। गवरी नृत्य के विभिन्न पात्र गोलाकार के मध्य देवी के त्रिशूल की स्थापना करके नृत्य प्रदर्शन करते हैं। इस लोक नाट्य में पुरूष ही होते हैं, तथा स्त्री पात्रों का अभिनय भी पुरूषों द्वारा ही किया जाता हैं। गवरी में 50 से 150 तक पात्र होते है। इनमें गणपति, भंवरया, गोमा, मीणा, गालूकीर, कान गूजरी, मियांवड, देवी अंबा, बादशाह की फ ौज, बणजारा, शिव -पार्वती आदि खेल खेले जाते है।घडावण एवं वलावण गवरी के दो अंतिम पर्व होते हैं। घडावण के एक दिन पूर्व गवरी दल अपने मूल गांव वापस लौट आता है। कुम्हार के घर जाकर मिट्टी का बना हाथी लाता है। उसको गांव के चौराहे पर रखकर सब उसके इर्द गिर्द नाचते रहते हैं। रात्रि में हाथी को देवरे पर रखा जाता है। पूरी रात गवरी का मंचन होता है। वलावण अर्थात गवरी के विसर्जन के दिन गवरी नृत्य का मंचन होता है। शाम को नृत्य समाप्ति के बाद बहन बेटियां उनको पैरावनी करती हंै। विर्सजन के हाथी को सिर पर उठाकर गांव के पास की नदी या तालाब की ओर लाया जाता है। साथ ही विसर्जन होता है।

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