हिमाचल की हरीभरी वादियों में बसा हुआ कुल्लू एक बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है, जो बरबस ही लाेगों अपनी आेर खींच लेता है। कुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्य दुनिया का अंत। विज नदी के किनारे बसा यह स्थान अपने यहां मनाए जाने वाले रंगबिरंगे दशहरा के लिए प्रसिद्ध है।
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कुल्लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां 17वीं शताब्दी में निर्मित रघुनाथजी का मंदिर भी है जो हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है। सिल्वर वैली के नाम से मशहूर यह जगह केवल सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए ही नहीं बल्कि एडवेंचर स्पोर्ट के लिए भी प्रसिद्ध है।
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रघुनाथजी मंदिर-इस मंदिर का निर्माण राजा जगत सिंह ने 17वीं शताब्दी में करवाया था। कहा जाता है कि एक बार उनसे एक भयंकर भूल हो गई थी। उस गलती का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। यहां श्री रघुनाथ अपने रथ पर विराजमान हैं। इस मंदिर में स्थापित रघुनाथ जी की प्रतिमा राजा जगत सिंह ने अयोध्या से मंगवाई थी। आज भी इस मंदिर की शोभा देखते ही बनती है।
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वॉटर और एडवेंचर स्पोर्ट—कुल्लु घाटी में अनेक जगह हैं जहां मछली पकड़ने का आनंद उठाया जा सकता है। इन जगहों में पिरडी, रायसन, कसोल नागर और जिया प्रमुख हैं। इसके साथ ही ब्यास् नदी में वॉटर राफ्टिंग का मजा लिया जा सकता है। इन सबके अलावा यहां ट्रैकिंग भी की जा सकती है।
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बिजली महादेव मंदिर—कुल्लू से 14 किलोमीटर दूर पहाडी पर बना यह मंदिर यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है। मंदिर तक पहुंचने के लिए कठिन चढ़ाई चढ़नी होती है। यहां का मुख्य आकर्षण 100 मी. लंबी ध्वज़(छड़ी) है। इसे देखकर ऐसा ल्रगता है मानो यह सूरज को भेद रही हो। इस ध्वज़ (छड़ी) के बारे में कहा जाता है बिजली कड़कने पर इसमें जो तरंगे उठती है वे भगवान का आशीर्वाद होता है। इस ध्वज पर लग़भग हर साल बिजली गिरती है। कभी-कभी मंदिर के अन्दर शिवलिन्ग पर भी बिजली गिरती है जिस से शिवलिन्ग खऩ्डित हो जाता है। पुजारी खऩ्डित शिवलिन्ग को मक्खन से जोडता है जिस से शिवलिन्ग फिर सामान्य हो जाता है। इस मंदिर से कुल्लू और पार्वती घाटी का खुबसूरत नजारा देखा जा सकता है।
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कुल्लु का दशहरा पुरे देश में प्रसिद्ध है। इसकी खासियत है कि जब पूरे देश में दशहरा खत्म हो जाता है तब यहां शुरु होता है। देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्सव हिमाचल के लोगों की संस्कृति और धार्मिक आस्था का प्रतीक है। उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहां के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।