छठ पूजा के मौके पर नई भोजपुरी फिल्म ( Bhojpuri Film ) ‘छठी माई के गुन गाई’ दर्शकों के बीच पहुंचने वाली है, तो भोजपुरी की गायिका-अभिनेत्री अक्षरा सिंह ( Akshara Singh ) का नया गाना ‘बनवले रहिह सुहाग’ जारी किया जा चुका है। यह सक्रियता बताती है कि कुछ दूसरी क्षेत्रीय फिल्म इंडस्ट्री के मुकाबले भोजपुरी सिनेमा (इसे ‘भोजीवुड’ भी कहा जाता है) कहीं बेहतर हालत में है। वह न सिर्फ लगातार फिल्में बना रहा है, बल्कि अपनी पहुंच और पहचान का दायरा इतना बढ़ा चुका है कि अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जैकी श्रॉफ, मिथुन चक्रवर्ती, हेमा मालिनी, जूही चावला, शिल्पा शेट्टी आदि भी उसकी फिल्मों में नजर आने लगे हैं। भोजपुरी कलाकारों में रवि किशन, मनोज तिवारी, खेसारी लाल यादव, दिनेश लाल (निरहुआ) और पवन सिंह सितारा हैसियत रखते हैं।
1962 में बनी थी पहली फिल्म
करीब दो हजार करोड़ रुपए की फिल्म इंडस्ट्री के मुकाम तक पहुंचने में भोजपुरी सिनेमा ( Bhojpuri Cinema ) को काफी पापड़ बेलने पड़े हैं। पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ (1962) की जबरदस्त कामयाबी ने फिल्म वालों को नई दुधारू गाय का पता दे दिया था। कई लोग इस गाय को दुहने के लिए कतार में खड़े हो गए और ज्यादातर ने ऐसी फिल्में बनाईं, जिनका भोजपुरी की समृद्ध सांस्कृतिक और पारंपरिक विरासत से कोई लेना-देना नहीं था। इन फिल्मों के मुकाबले हिन्दी की कुछ फिल्मों ने इस विरासत को ज्यादा सलीके से पेश किया। मसलन दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’, जिसकी भाषा अवधी मिश्रित भोजपुरी रखी गई। गीतकार शैलेंद्र ने इस फिल्म में ‘नैन लड़ जहिए तो मनवा मा कसक’ रचकर भोजपुरी की शब्दावली को कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंचा दिया। ‘गंगा-जमुना’ के कई साल बाद ‘नदिया के पार’ (सचिन, साधना सिंह) की रेकॉर्डतोड़ कामयाबी ने भोजपुरी की सुगंध को और फैलाया। इस फिल्म के ‘कौन दिसा में लेके चला रे बटोहिया’, ‘जोगीजी धीरे-धीरे’, ‘जब तक पूरे न हों फेरे सात’ और ‘सांची कहें तोरे आवन से’ आज भी लोकप्रिय हैं। ‘नदिया के पार’ की कहानी बाद में ‘हम आपके हैं कौन’ में दोहराई गई।
सुजीत कुमार थे भोजपुरी के राजेश खन्ना
किसी जमाने में नजीर हुसैन, सुजीत कुमार, पद्मा खन्ना, राकेश पांडे, जयश्री टी. अरुणा ईरानी आदि भोजपुरी फिल्मों में खूब जगमगाते थे। सुजीत कुमार को तो भोजपुरी का राजेश खन्ना माना जाता था। उस दौर में ज्यादातर फिल्मकार लटके-झटकों वाली भोजपुरी फिल्में इसलिए बनाते थे, ताकि इनकी कमाई से बड़े सितारों वाली हिन्दी फिल्म बना सकें। ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ जैसी सलीकेदार फिल्म बनाने वाले कुंदन कुमार ने भी यही किया। भोजपुरी सिनेमा को रचनात्मक और कलात्मक ऊंचाई देने के बदले उन्होंने बाद में ‘औलाद’, ‘अनोखी अदा’, ‘दुनिया का मेला’, ‘आज का महात्मा’ जैसी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया।
‘सी’ ग्रेड की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सका
भोजपुरी सिनेमा 58 साल का हो चुका है, लेकिन ‘सी’ ग्रेड की लक्ष्मण रेखा को अब तक नहीं लांघ सका है। अश्लीलता, फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों-गीतों को उसने कामयाबी का शॉर्ट कट मान रखा है। अफसोस की बात है कि जिस भाषा को देश में करोड़ों लोग बोलते हों, जो बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, महाराष्ट्र से लेकर बांग्लादेश, सूरीनाम, फिजी और मॉरीशस तक फैली हो, उसकी फिल्में अपने लिए पुख्ता सांस्कृतिक जमीन तैयार नहीं कर सकी हैं।