टीकमगढ़. स्वयं भू भगवान कुण्डेश्वर, समूचे क्षेत्र में तेरहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजे जाता है। स्वयं भू भगवान कुण्डेश्वर की द्वापर युग से पूजा की जा रही है। उस समय बाणासुर की पुत्री ऊषा ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। वर्तमान में भी किवदंती है कि ऊषा आज भी भगवान शिव का जल अर्पित करने आती है, मगर उन्हें कोई देख नही पाता है। कुण्डेश्वर स्थित देवाधिदेव महादेव आज भी शाश्वत और सत्य है, इसका जीता-जागता प्रमाण स्वयं प्रतिवर्ष चावल के बराबर बढऩे वाला शिवलिंग है।
समूचे उत्तर भारत में भगवान कुण्डेश्वर की विशेष मान्यता है। यहां पर प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान के दर्शन करने के आते है। कुण्डेश्वर स्थित शिवलिंग प्राचीन काल से ही लोगों की आस्था का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर कामना पूरी होती है। पौराणिक काल द्वापर युग में दैत्य राजा बाणासुर की पुत्री ऊषा जंगल के मार्ग से आकर यहां पर बने कुण्ड के अंदर भगवान शिव की आराधना करती थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें कालभैरव के रूप में दर्शन दिए थे और उनकी प्रार्थना पर ही कालांतर में भगवान यहां पर प्रकट हुए है।
तेरहवां ज्योर्तिलिंग है कुण्डेश्वर: स्वयं भू भगवान शिव के विषय में श्रद्धालु एवं नपा के पूर्व अध्यक्ष राकेश गिरि का कहना है कि यह प्राचीन एवं सिद्ध स्थल है। यह शिवलिंग प्रतिवर्ष चावल के दाने के आकार का बड़ता है। समूचे क्षेत्र में इसे तेरहवें ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल से इस मंदिर का विशेष महात्व है। कहते है आज भी वाणासुर की पुत्री ऊषा यहां पर पूजा करने के लिए आती है।
ओखली में प्रकटे थे भगवान शिव: कुण्डेश्वर के आशुतोष अपर्णा ट्रस्ट के अध्यक्ष नंदकिशोर दीक्षित बताते है कि संवत 1204 में यहां पर धंतीबाई नाम की एक महिला पहाड़ी पर रहती थी। पहाड़ी पर बनी ओखली में एक दिन वह धान कूट रही थी। उसी समय ओखली से रक्त निकलना शुरू हुआ तो वह घबरा गई। ओखली को अपनी पीलत की परात से ढक कर वह नीचे आई और लोगों को यह घटना बताई। लोगों ने तत्काल ही इसकी सूचना तत्कालीन महाराजा राजा मदन वर्मन को दी। राजा ने अपने सिपाहियों के साथ आकर इस स्थल का निरीक्षण किया तो यहां पर शिवलिंग दिखाई दिया। इसके बाद राजा वर्मन ने यहां पर पूरे दरवार की स्थापना कराई। यहां पर विराजे नंदी पर आज भी संवत 1204 अंकित है। जो उस समय की इस घटना का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
आज भी आती है ऊषा: मंदिर में विराजे भगवान शिव को लेकर किवदंती है कि आज भी राजकुमारी ऊषा यहां पर भगवान शिव को जल अर्पित करने के लिए आती है। मंदिर के पुजारी जमुना प्रसाद तिवारी सहित अनेक श्रद्धालु बताते है कि आज भी पता नही चलता है कि आखिर सुबह सबसे पहले कौन आकर शिवलिंग पर जल चढ़ा जाता है। कुछ लोगों ने इसका पता लगाने का भी प्रयास किया लेकिन सफलता नही मिली। मंदिर को लेकर पुस्तक लिख रहे ओमप्रकाश तिवारी भी बताते है कि वह भी कुछ दिन इसका पता लगाने का प्रयास करते रहे, लेकिन हकीकत किसी को पता नही।
हुई खुदाई, नही मिली गहराई:
लोग बताते है कि कुण्डेश्वर मंदिर में प्रत्येक वर्ष बढऩे वाले शिवलिंग की हकीकत पता करने सन 1937 में टीकमगढ़ रियासत के तत्कालीन महाराज वीर सिंह जू देव द्वितीय ने यहां पर खुदाई प्रारंभ कराई थी। उस समय खुदाई में हर तीन फीट पर एक जलहरी मिलती थी। ऐसी सात जलहरी महाराज को मिली। लेकिन शिवलिंग की पूरी गहराई तक नही पहुंच सके। इसके बाद भगवान ने उन्हें स्वप्र दिया और यह खुदाई बंद कराई गई।
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