अयोध्या में राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाने वाली भगवान राम और सीता की प्रतिमाएं नेपाल की गंडकी नदी में मिलने वाले विशेष पत्थरों को तराशकर बनाई जाएंगी। नेपाल के मुक्तिनाथ क्षेत्र से दो बड़े शिला हाल ही में बुधवार 25 जनवरी को इस काम के लिए अयोध्या भेजा गया है। आपको यहां बताते चलें कि इन शिलाओं को शालिग्राम के नाम से भी जाना जाता है। ये शिलाएं भगवान विष्णु का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगले साल जनवरी 2024 में मकर संक्रांति पर्व तक इन मूर्तियों के पूरी तरह से तैयार होने की उम्मीद की जा रही है। हिंदू पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक सीता नेपाल के राजा जनक की बेटी थींं और उनका विवाह अयोध्या के भगवान राम से हुआ था। राम नवमी पर राम के जन्म के उत्सव के साथ नेपाल के जनकपुर में भक्त शुक्ल पक्ष के पांचवें दिन राम और सीता की शादी का जश्न मनाते हैं।
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राम लला की प्रतिमा तैयार करने के लिए मूर्ति निर्माण में देश के मशहूर शिल्पियों की तीन सदस्यीय टीम काम कर रही है। खड़ी मुद्रा की प्रतिमा के कई छोटे मॉडल आ चुके हैं। इनमें से किसी एक का चयन मंदिर ट्रस्ट करेगा। यह प्रतिमा साढ़े पांच फीट ऊंची होगी, जिसके नीचे करीब 3 फीट ऊंचा स्टैंड बनाया जाएगा। खगोलशास्त्री इसके लिए ऐसी व्यवस्था कर रहे हैं कि रामनवमी को दोपहर 12 बजे प्रभु राम के जन्म के अवसर पर रामलला के ललाट पर सूर्य की किरणें पड़ें और इसे प्रकाशमान कर सकें।
यहां जानें शालिग्राम पत्थर क्यों है महत्वपूर्ण
हिंदू धर्म में शालिग्राम पत्थर का विशेष महत्व माना जाता है। यह पत्थर एक तरह का जीवाश्म पत्थर है, यह नेपाल के मुक्तिनाथ, काली गण्डकी नदी के तट पर पाया जाता है। बताया जाता है कि 33 प्रकार के शालिग्राम होते हैं, जिनमें 24 प्रकार को भगवान विष्णु के 24 अवतारों से जोड़ा जाता है। मान्यता यह भी है कि जिस घर में शालिग्राम का पत्थर होता है, वहां सुख-शांति बनी रहती है और आपसी प्रेम बना रहता है। साथ ही मां लक्ष्मी की कृपा भी इन घरों में हमेशा बनी रहती है। माना जाता है कि जिस घर में शालिग्राम की उपस्थिति होती है वहां लक्ष्मीजी जरूर आती हैं। दरअसल यह माना जाता है कि शालिग्राम की उपस्थिति लक्ष्मीजी को आकर्षित करती है।
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भगवान विष्णु के 24 अवतारों से जुड़ा है शालिग्राम
माना जाता है कि 33 प्रकार के शालिग्राम होते हैं, जिनमें 24 प्रकार को भगवान विष्णु के 24 अवतारों से जोड़ा जाता है। ये सभी 24 शालिग्राम वर्ष की 24 एकादशियों के व्रत से जुड़ा हुआ है। शालिग्राम पत्थर को सालग्राम के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों के मुताबिक शिवलिंग और शालिग्राम को भगवान विष्णु और भगवान शिव के विग्रह रूप में पूजा जाता है। हिंदू धर्म में मूर्ति पूजन की प्रथा पर नजर डालें तो इन मूर्तियों के अस्तित्व में आने से पहले भगवान ब्रह्माजी को शंख, भगवान विष्णु को शालिग्राम और भगवान शिव को शिवलिंग के रूप में पूजने का विधान था।
यहां जानें शालिग्राम पत्थर की कथा
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान विष्णु के विग्रह, अनंत और निराकार स्वरूप को शालिग्राम कहा जाता है। जिस तरह भगवान शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में की जाती है, उसी तरह भगवान विष्णु की पूजा शालिग्राम के रूप में की जाती है। पद्म पुराण में भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप का वर्णन मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु की एक भक्त थीं देवी वृंदा। उनका विवाह जलंधर नाम के राक्षस से हुआ था। जलंधर को भगवान शिव के अंश से उत्पन्न माना जाता है। वह देवताओं का विरोधी बन गया था और देवलोक पर अधिकार करके देवताओं को कष्ट दे रहा था। एक बार उसने अपने बल पर देवी पार्वती को पत्नी बनाने की हठ कर ली। और उसने कैलाश पर्वत पर आक्रमण कर दिया। देवी वृंदा यह जानती थीं की भगवान शिव से जलंधर जीत नहीं पाएगा, इसीलिए अपने पतिव्रत के बल पर वह संकल्प लेकर तपस्या करने बैठ गईं। जब तक जलंधर युद्ध में जीतकर नहीं लौटेंगे, तब तक वह अटल रहकर व्रत में ही लीन रहेंगी। ऐसे में देवताओं के लिए जलंधर को पराजित कर पाना कठिन हो गया था। तब भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण किया और वृंदा के पास पहुंच गए।
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वृंदा ने जैसे ही अपने पति को देखा तो वह पूजा से उठ गई और उनके चरणों का स्पर्श कर लिया। इससे वृंदा का संकल्प टूट गया और युद्ध में जलंधर मारा गया। देवताओं ने जलंधर का सिर काट दिया और वृंदा के महल में पहुंचा दिया। वृंदा ने जब पति का कटा हुआ सिर देखा और सामने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में पाया तो, क्रोध से उबल पड़ीं। भगवान विष्णु भी अवाक होकर अपराधी के समान वृंदा के सामने अपने वास्तविक रूप में खड़े रहे। वृंदा ने क्रोध में आकर भगवान विष्णु को शाप दिया कि वह पत्थर के हो जाएं। वृंदा के शाप से भगवान विष्णु काले रंग के शालिग्राम पत्थर बन गए। भगवान विष्णु के पत्थर हो जाने से चारों तरफ हाहाकार मच गया। सृष्टि को व्याकुल देखकर भगवान शिव सहित सभी देवी-देवताओं ने देवी वृंदा से शाप वापस लेने की विनती की। तब देवी वृंदा ने शाप वापस ले लिया और स्वयं को अग्नि को समर्पित करके भस्म बन गईं। और उसी भस्म से देवी वृंदा तुलसी रूप में प्रकट हुईं। भगवान विष्णु ने उस समय कहा कि आज से मेरा एक रूप शालिग्राम भी होगा और देवी वृंदा तुलसी रूप में मेरे माथे पर शोभा पाएंगीं। इसलिए शालिग्राम को साक्षात विष्णु का रूप माना जाता है।
गंडकी नदी में ही क्यों रहते हैं शालिग्राम
देवी वृंदा के शाप से मुक्त होने पर भगवान विष्णु ने देवी वृंदा को यह भी वरदान दिया था कि तुम सदैव धरती पर गंडकी नदी के रूप में बहती रहोगी। तुम्हारा एक नाम नारायणी भी होगा। तुम्हारी जलधारा में ही मैं शालिग्राम शिला के रूप में निवास करूंगा, क्योंकि तुम मेरी सदैव प्रिय रहोगी। भगवान विष्णु के इसी वरदान के कारण शालिग्राम शिला गंडकी नदी में ही मिलती है।