दरअसल इन सवालों के जवाब के लिए हमें इसकी पौराणिक कथा को पढऩा या जानना चाहिए।
यहां पढ़ें पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक एक बार माता यशोदा माता देवकी के साथ द्वारका पधारीं। वहां कृष्ण की रानियों ने माताओं से कृष्ण बाल रूप की लीलाओं के बारे में सुनने की इच्छा जताई। उनके साथ बहन सुभद्रा भी थीं। माता यशोदा ने कहा कि वह उन्हें कृष्ण तथा उनकी गोपियों की लीलाएं तो सुना देंगी, लेकिन ये कथा कृष्ण और बलराम के कानों तक नहीं पहुंचनी चाहिए। इस बात का ध्यान रखने के लिए सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने के लिए मनाया गया, जब वह तैयार हो गईं और द्वार पर पहरा देने लगीं, तो माता ने लीलाओं का गान शुरू किया। भगवान की लीला का सुनते हुए सभी गोपियां अपनी सुध-बुध खो बैठीं। वहीं सुभद्रा भी कृष्ण लीला में ऐसे खो गईं कि उन्हें भी पता नहीं चला कि कब भगवान श्री कृष्ण और बलराम वहां आ गए और उनके सभी के बीच अपनी ही लीलाओं का आनंद लेने लगे। बचपन की मधुर लीलाओं को सुनते-सुनते उनकी आंखें फैलने लगीं। सुभद्रा की भी यही दशा हुई वह भी कृष्ण लीला से आनंदित हो कर पिघलने लगीं। उसी समय श्री नारदजी वहां पधारे। यह क्षण ऐसा था कि सभी को किसी के आने का अहसास होने लगा और कृष्ण लीला की कथा यहीं रोक दी गई। नारदजी भगवान संग बलराम और सुभद्रा के ऐसे रूप को देखकर मोहित हो गए। वह बोले – भगवन! आपका यह रूप बहुत सुंदर है। आप इस रूप में सामान्य जन को भी दर्शन दें। तब भगवान कृष्ण ने कहा कि कलयुग में वे इस रूप में अवतरित होंगे। जगन्नाथ पुरी में भगवान का यही विग्रह रूप मौजूद है, जिसमें वे अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ हैं। लेकिन यह विग्रह भी आधा अधूरा सा क्यों है? इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है।
आधे-अधूरे रूप के पीछे प्रचलित है यह पौराणिक कथा
पुरी का जगन्नाथ मंदिर, सारी दुनिया में प्रसिद्ध है। इस प्रसिद्ध मंदिर से जुड़ी कई कथाएं लोकप्रिय हैं, आइए जानते हैं पुरी के जगन्नाथ मंदिर की प्रचलित कथा…
पौराणिक कथा
माना जाता है कि नारद मुनि से किए आने वादे के अनुसार कलयुग में श्री कृष्ण राजा इंद्रद्युम्न के सपने में आए और उनसे कहा कि वह पुरी के दरिया किनारे एक पेड़ के तने में उनका विग्रह बनवाएं और बाद में उसे मंदिर में स्थापित करा दें। श्रीकृष्ण के आदेशानुसार राजा ने इस काम के लिए एक कुशल और योग्य बढ़ई की तलाश शुरू कर दी। कुछ दिनों में एक बूढ़ा ब्राह्मण उन्हें मिला और उसी ने इस विग्रह को बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इस ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह इस विग्रह को बंद कमरे में ही बनाएगा और उसके काम करते समय कोई भी कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा नहीं तो, वह काम अधूरा छोड़ कर चला जाएगा। राजा ने उसकी शर्तों को मान लिया और ब्राह्मण ने बंद कमरे में अपना काम शुरू कर दिया।
शुरुआत में काम की आवाज आई, लेकिन कुछ दिनों बाद उस कमरे से आवाज आना बंद हो गई। राजा ने सोचा कि कई दिनों से कमरे से आवाज नहीं हा रही है। वह चिंतित होने लगा, वहीं जिज्ञासावश उसके मन में यह विचार आ गया कि क्यों न एक बार दरवाजा खोल कर देखें कि वह है या नहीं? कहीं उस बूढ़े ब्राह्मण को कुछ हो तो नहीं गया। कई दिन सोच-विचार के बाद चिंतित राजा ने एक दिन उस कमरे का दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही उसे सामने अधूरा विग्रह मिला और ब्राह्मण भी वहां से गायब था। तब उसे अहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि, खुद विश्वकर्मा थे। शर्त के खिलाफ जाकर दरवाजा खोलने के कारण वे यहां से चले गए।
उस समयनारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि जिस तरह भगवान ने सपने में आकर इस विग्रह को बनाने की बात कही ठीक उसी प्रकार इसे अधूरा रखने के लिए भी द्वार खुलवा लिया। राजा ने उन अधूरी मूरतों को ही मंदिर में स्थापित करवा दिया। यही कारण है कि जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कोई पत्थर या फिर अन्य धातु की मूर्ति नहीं बल्कि, पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई मूरत की पूजा की जाती है।
इस मंदिर के गर्भ गृह में श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलभद्र (बलराम) की मूर्ति विराजी हैं। कहा जाता है कि माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारका से बहुत प्रेम था, इसलिए उनकी इस इच्छा को पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी ने अलग रथों में बैठकर द्वारका का भ्रमण किया था। तब से आज तक पुरी में हर साल रथयात्रा निकाली जाती है।