दरअसल तरकुलहा देवी मंदिर गोरखपुर को अपने कई चमत्कारों और कुछ कथाओं के वजह से जाना जाता है, यह मंदिर आजादी की लड़ाई से भी जुड़ा हुआ है। यह मंदिर मुख्य रूप से अपनी दो विशेषताओं के चलते जाना है।
: तरकुलहा देवी मंदिर एक तो डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह की वजह से भी काफी लोकप्रिय है।
: दूसरा कारण नदी के तट पर बहुत अधिक तरकुल (ताड़) के पेड़ का होना हैं, जो मंदिर की सुन्दरता को और अधिक निखार देते हैं। तो चलिए जानते हैं गोरखपुर स्थित तरकुलहा देवी मंदिर की कहानी…
तरकुलहा देवी मंदिर की कहानी : Story of Tarkulha Devi Mandir
काफी समय पहले से तरकुलहा देवी मंदिर के आसपास जंगल हुआ करता था, जहां पर गुलामी के दौर में डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे। वे नदी के किनारे पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर देवी की उपासना करते थे। तरकुलहा देवी बाबू बंधू सिंह कि इष्ट देवी थी। कहा जाता है बाबू बंधू गुरिल्ला लड़ाई में बहुत अच्छे थे, और जब कभी अंग्रेज इस जंगल से गुजरते थे ऐसे में बाबू बंधू उन्हें मार देते थे और अंग्रेजों के सिर को काटकर तरकुलहा देवी के चरण में समर्पित कर देते थे।
बाबू बंधू सिंह गिरफ्तारी : लेकिन कामयाब न हुए अंग्रेज
बाबू बंधू सिंह द्वारा लगातार अंग्रेजों के सिर को काटकर चढ़ाने की वजह से अंग्रेजों ने उन्हें एक दिन गिरफ्तार कर लिया था, फिर अदालत में उनकी पेशी हुई। जिसमें उनको फांसी की सजा सुनाई गई, इसके बाद 12 अगस्त 1857 को गोरखपुर के अली नगर चौराहे पर सभी लोगों के सामने बाबू बंधू जी को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर लटका देने का आदेश दे दिया, लेकिन अंग्रेज कामयाब न हुए।
देवी मां का चमत्कार
दरअसल बंधू देवी मां के भक्त थे और देवी मां के चमत्कार की वजह से ही उन्हें 7 बार फांसी देने के बावजूद अंग्रेज कामयाब न हो सके। इसके बाद बाबू बंधू सिंह देवी मां से खुद मन्नत मांगी देवी मां मुझे जाने दें। तब कहीं जाकर देवी मां ने उनकी प्रार्थना स्वीकार किया और 7वीं बार जो फांसी दी गई उसमें अंग्रेजो को कामयाबी प्राप्त हुई।
तरकुलहा देवी मंदिर गोरखपुर-
: गोरखपुर का तरकुलहा देवी मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां पर प्रसाद के रूप में मटन दिया जाता है।
: गोरखपुर के तरकुलहा देवी मन्दिर में बाबू बंधू सिंह ने अंग्रेज के सिर से बलि की परम्परा चालू की थी।
: आज भी यह परम्परा तरकुलहा देवी मंदिर गोरखपुर में निभाया जा रहा है।
: अब यहां इंसान की सिर जगह बकरे के सिर की बलि चढ़ाई जाती है।
: यहां मांस को मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है।
: प्रसाद के रूप में मिटटी के बर्तन को दिया जाता है, यह परम्परा वर्षों से चली आ रही है।