तारे दिखने के बाद पूजन
कार्तिक महीने करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद दिनभर निर्जल उपवास रखने के बाद और सायंकाल में तारे दिखाई देने के बाद होई का पूजन किया जाता है। इसलिए इसे अहोई अष्टमी के नाम से जाना जाता है। माताएं सूर्योदय से पहले उठकर फल खाती हैं और मां पार्वती का पूजन कर इस व्रत का संकल्प लेती हैं। ये व्रत तारे दिखने के बाद पूजा के बाद चन्द्रमा के दर्शन के उपरान्त ही खोला जाता है। संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है।
कार्तिक महीने करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद दिनभर निर्जल उपवास रखने के बाद और सायंकाल में तारे दिखाई देने के बाद होई का पूजन किया जाता है। इसलिए इसे अहोई अष्टमी के नाम से जाना जाता है। माताएं सूर्योदय से पहले उठकर फल खाती हैं और मां पार्वती का पूजन कर इस व्रत का संकल्प लेती हैं। ये व्रत तारे दिखने के बाद पूजा के बाद चन्द्रमा के दर्शन के उपरान्त ही खोला जाता है। संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है।
इस दिन माताएं पूजन कर श्रद्धा भाव से अहोई माता की कथा सुनती हैं और हलवा, पूड़ी व चना का भोग अर्पण कर गेहूं से भरी थाली भी माता के चित्र के सामने अर्पित की करती हैं।
व्रत का कथानक
पूजन से पहले जमीन साफकर, चौक पूरकर उसमें होई माता का अंकन किया जाता है। पूरे शास्त्रीय विधान पूजन कर से माताएं देवी मां से अपने बच्चों के कल्याण की कामना करती हैं। इस व्रत से एक रोचक पौराणिक कथानक जुड़ा है। कथा के अनुसार एक गांव में एक साहूकार अपनी पत्नी व सात पुत्रों के साथ रहता था। एक बार कार्तिक माह में उसकी पत्नी मिटï्टी खोदने जंगल गई।
पूजन से पहले जमीन साफकर, चौक पूरकर उसमें होई माता का अंकन किया जाता है। पूरे शास्त्रीय विधान पूजन कर से माताएं देवी मां से अपने बच्चों के कल्याण की कामना करती हैं। इस व्रत से एक रोचक पौराणिक कथानक जुड़ा है। कथा के अनुसार एक गांव में एक साहूकार अपनी पत्नी व सात पुत्रों के साथ रहता था। एक बार कार्तिक माह में उसकी पत्नी मिटï्टी खोदने जंगल गई।
वहां उसकी कुदाल से अनजाने में एक पशु शावक (स्याहू के बच्चे) की मौत हो गई। उस घटना के बाद औरत के सातों पुत्र एक के बाद एक मृत्यु को प्राप्त होते गए। औरत ने जब अपना दर्द गांव के पुरोहित को बताया तो उसने उसे माता अहोई की व्रत-पूजा करने को कहा। महिला ने ऐसा ही किया। माता के आशीर्वाद से उसकी मृत संतानें फिर जीवित हो गए। तभी से माताओं द्वारा इस व्रत पूजन की परम्परा शुरू हो गई।