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हमारे अन्नदाता पर मौसम और मंदी की मार ज्यादा

श्रम ब्यूरो के मुताबिक मौसम और मंदी की मार का असर सबसे ज्यादा ग्रामीण किसानों पर पड़ा है। इसका असर आगामी चुनावों पर भी संभव।

Jan 09, 2018 / 04:06 pm

Dhirendra

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किसानों का नुकसान ज्यादा
श्रम ब्यूरों की रिपोर्ट से साफ है कि केन्द्र सरकार के अभी तक के कार्यकाल के दौरान पारिश्रमिक में कम बढ़ोतरी, फसल रोपाई में कमी और फसलों की अस्थिर कीमतों से ग्रामीण भारत में किसानों की स्थिति पहले ज्यादा खराब हुई है। 2016 में सर्दियों में रोपण में गहरी गति पिछले साल मानसून के दौरान असमान वर्षा की वजह से हुई थी। लेकिन 2017-18 में खरीफ फसलों में उत्पादन में पिछले वर्ष की तुलना में 2.8 फीसद की गिरावट को जानकार गंभीर चिंता का विषय मानकर चल रहे हैं। खासकर भाजपा के लिए, क्योंकि 2018 में आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इसका असर चुनाव परिणामों को बदल सकता है। पिछले साल मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में किसानों का उग्र प्रदर्शन इसी का नतीजा था।
राजस्थान और एमपी के बुवाई कम
बुवाई के हिसाब से सर्दियों किसानों के सबसे मुख्य फसल गेहूं होता है। पिछले वर्ष की अक्टूबर से जनवरी की तुलना में इसका रोपण चालू वर्ष में पांच फीसद कम हुआ है। इसके पीछे मुख्य वजह यह माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश में अभी तक केवल दस लाख हेक्टेयर में तिलहन के फसलों की बुवाई हुई जो पांच फीसद से ज्यादा कम है। तिलहन फसलों की खेती में सबसे ज्यादा खराब स्थिति राजस्थान की है। वहां पर केवल सात साल लाख हेक्टेयर में सरसों की बुवाई हुई है।
औसत कृषि विकास दर 1.9
2014-15 और 2015-16 दोनों साल सूखा पडऩे की वजह से कृषि विकास दर क्रमश: 0.2 और 0.7 फीसद ही रहा। इसकी तुलना में 2016-17 में सामान्य मानसून की वजह से विकास दर 4.9 फीसद रहा। जबकि 2017-18 में 2.1 फीसद की कमी का अनुमान है। इस लिहाज से भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले चार वर्षों में कृषि विकास दर 1.9 रहने का अनुमान है।
पारिश्रमिक में केवल 6.6त्न वृद्धि
ग्रामीण क्षेत्रों में पारिश्रमिक में बढ़ोतरी दर भी बहुत कम रहा है। श्रम ब्यूरों के अक्टूबर 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक सालाना दर से खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक में 6.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इस दरम्यान फसलों की कीमतें में न के बराबर वृद्धि हुई है। इसका असर भारतीय राजनीति पर हो सकता है। खासतौर से कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ सहित आठ राज्यों में जहां 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं। जहां तक ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी में बढ़ोतरी की बात है तो यह 2016 में 5 फीसद और 2015 में 3.1 फीसद था जो कि वर्ष 2014 में 17 और 2013 में 17.6 फीसद से बहुत कम है। यानि पिछले दो वर्षों में न तो कृषि आय में बढ़ोतरी हुई न ही पारिश्रमिक में। बागवानी फसलों जैसे आलू, टमाटर, प्याज की थोक कीमतों में तेजी से उतार चढ़ाव किसानों को अपने उत्पादों को डंप करने के लिए मजबूर करने वाला साबित हुआ। किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान दाल और सोयाबीन जैसे तिलहन फसलों की कीमतों में गिरावट के चलते हुआ। जिसने सरकार पर कृषि उत्पाद की सब्सिडी और ऋण छूट के लिए सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है।
समस्याओं को समझे सरकार
सेंटर फार स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी के प्रोफेसर अभय कुमार दुबे का कहना है कि गुजरात चुनाव के नतीजे बताते हैं कि किसानों की लगातार उपेक्षा भाजपा को आगामी चुनावों में भी नुकसान पहुंचा सकता है। भाजपा को गुजरात के चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में दो प्रतिशत वोट भले ही ज्यादा मिले पर अधिकांश सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशियों को जीत मिली है। शहरी और कस्बाई मतों के बल पर भाजपा किसी तरह सरकार बचा पाई है। यानि पीएम मोदी की सरकार किसानों की समस्याओं को नहीं सुलझा पाईं तो आगामी चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के रूप में इसका असर दिख सकता है।
वादाखिलाफी से निराशा ज्यादा
अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर इंडियन काउंसिल फार रिसर्च (कृषि) के प्रोफसर अशोक गुलाटी का कहना है कि भारतीय किसानों की सबसे बड़ी समस्या फसल उत्पादों का मूल्य कम मिलना है, जिससे उनको लाभ मिलने के बदले नुकसान ज्यादा हो रहा है। 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने किसानों को लागत की तुलना में 50 फीसद अधिक मूल्य दिलाने का वादा किया था। वादे पर अमल न करने से किसानों ज्यादा निराश हैं। सरकार के लिए बहतर यही होगा कि किसानों की समस्याओं को समझे और फसल बीमा और सिचाई जैसी योजनाओं पर प्रभावी अमल करे। 19 से अधिक राज्यों में भाजपा सत्ता में है। इन राज्यों में दबाव बनाकर कृषिगत उत्पादों के बाजार का विस्तार कर किसानों को बेहतर कीमत दिलाना संभव है।

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