नई दिल्ली। अपनी अनोखी मुस्कान, अनूठे अंदाज, आकर्षक चेहरे और चॉकलेटी हीरो वाली छवि के साथ ही अपने सदाबहार अभिनय से पर्दे पर छा जाने वाले शशि कपूर के अंदाज की बानगी देखनी हो तो उनकी फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ का गीत ‘एक था गुल और एक थी बुलबुल’ में उनका मुस्कुराता चेहरा ही काफी है। अपने खास अंदाज से हिंदी सिने जगत पर चार दशकों तक राज करने वाले शशि कपूर को अभिनय विरासत में मिला था।
हिंदी सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले पृथ्वीराज कपूर के घर 18 मार्च, 1938 को जन्मे शशि कपूर पृथ्वीराज की चार संतानों में सबसे छोटे हैं। उनकी मां का नाम रामशरणी कपूर था। उन्हें वह सब कुछ मिला था, जो सफल होने के लिए सही
अनुपात में चाहिए था। मोहक मुस्कान, आकर्षक चेहरा, रंगमंच का अनुभव और फिल्मी विरासत।
आकर्षक व्यक्तित्व वाले शशि कपूर के बचपन का नाम बलबीर राज कपूर था। बचपन से ही अभिनय के शौकीन शशि स्कूल में नाटकों में हिस्सा लेना चाहते थे। उनकी यह इच्छा वहां तो कभी पूरी नहीं हुई, लेकिन उन्हें यह मौका अपने पिता
की नाट्य मंडली ‘पृथ्वी थियेटर्स’ में मिला।
पिता और उनकी नाट्य मंडली के संपर्क में रहते हुए शशि कपूर ने छोटी उम्र से ही अभिनय करना शुरू कर दिया था। शशि ने अभिनय का अपना करियर 1944 में अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर के नाटक ‘शकुंतला’ से शुरू किया।
शशि कपूर ने फिल्मों में भी अपने अभिनय की शुरुआत बाल कलाकार के रूप में की थी। उन्होंने बाल कलाकार के रूप में आग (1948) और आवारा (1951) में अपने बड़े भाई राज कपूर के बचपन की भूमिका निभाई।
शादी के मामले में भी वह अलग ही निकले। पृथ्वी थिएटर में काम करने के दौरान वह भारत यात्रा पर आए गोदफ्रे कैंडल के थिएटर ग्रुप ‘शेक्सपियेराना’ में शामिल हो गए। थियेटर ग्रुप के साथ काम करते हुए उन्होंने दुनियाभर की यात्राएं कीं और
गोदफ्रे की बेटी जेनिफर के साथ कई नाटकों में काम किया। इसी बीच उनका और जेनिफर का प्यार परवान चढ़ा और 20 साल की उम्र में ही उन्होंने खुद से तीन साल बड़ी जेनिफर से शादी कर ली। कपूर खानदान में इस तरह की यह पहली शादी थी।
शशि कपूर के व्यक्तित्व का अंदाज तो निराला था ही, उनका अभिनय भी बेजोड़ था। अपने फिल्मी करियर के दौरान उन्होंने राखी, शर्मिला टैगोर, जीनत अमान, हेमा मालिनी, परवीन बॉबी, नीतू सिंह और मौसमी चटर्जी समेत कई अभिनेत्रियों के साथ काम किया। अभिनेत्री नंदा के साथ भी उनकी जोड़ी बेहद हिट रही।
उनकी प्रमुख फिल्मों में जब जब फूल खिले, सत्यम शिवम सुंदरम, कभी-कभी, आ गले लग जा, अभिनेत्री, बसेरा, बिरादरी, चार दीवारी, चोर मचाए शोर, दीवार, धर्मपुत्र, दो और दो पांच, एक श्रीमान एक श्रीमती, काला पत्थर, कलयुग, क्रांति, नमक हलाल, न्यू देहली टाइम्स, प्रेम पत्र, प्यार का मौसम, प्यार किए जा, रोटी कपड़ा और मकान, शान, शर्मीली, सुहाग, सिलसिला, त्रिशूल, उत्सव, विजेता आदि शामिल हैं।
उनकी संवाद अदायगी ने भी उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं से अलग खड़ा किया। फिल्म ‘दीवार’ में अमिताभ बच्चन के साथ फिल्माए गए एक दृश्य में उनके डायलॉग, ‘मेरे पास मां है’ को लोग आज भी भूले नहीं हैं।
समकालीन अभिनेताओं में बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी और दर्शकों द्वारा पसंद की गई। अमिताभ के साथ उन्होंने दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर, ईमान धरम, सुहाग, दो और दो पांच, शान, नमक हलाल और सिलसिला जैसी यादगार फिल्मों में अपने अभिनय की छाप छोड़ी।
व्यावसायिक सिनेमा के सफल स्टार शशि कपूर का समानांतर सिनेमा के प्रति भी उतना ही लगता था। इसीलिए बाद में उन्होंने अपने होम प्रोडक्शन शेक्सपीयरवाला के बैनर तले बतौर निर्माता कई समानांतर फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने
श्याम बेनेगल, अपर्णा सेन, गोविंद निहलानी, गिरीश कर्नाड जैसे देश के दिग्गज फिल्मकारों के निर्देशन में जूनून, कलयुग, 36 चौरंगी लेन, उत्सव जैसी फिल्मों का निर्माण किया और एक अलग प्रकार का सिनेमा रचने की कोशिश की।
ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तो सफल नहीं हुईं, लेकिन इन्हें आलोचकों ने काफी सराहा और ये फिल्में आज भी मील का पत्थर मानी जाती हैं। शशि कपूर भारत के पहले ऐसे अभिनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश तथा अमेरिकी फिल्मों में भी काम किया। इनमें हाउसहोल्डर, शेक्सपियर वाला, बॉम्बे टॉकीज, तथा हीट एंड डस्ट जैसी फिल्में शामिल हैं।
हिंदी सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए वर्ष 2014 में उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया। अपनी फिल्म ‘जुनून’ के लिए उन्हें बतौर निर्माता राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ में अपने अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 2011 में उन्हें पद्मभूषण सम्मान मिला।
इसके अलावा शशि कपूर को फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का, बांबे जर्नलिस्ट एशोसिएशन अवार्ड और फिल्म ‘मुहाफिज’ के लिए स्पेशल ज्यूरी का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। बॉलीवुड से वह लगभग संन्यास ले चुके हैं। वर्ष 1998 में प्रदर्शित फिल्म ‘जिन्ना’ उनके सिने करियर की अंतिम फिल्म मानी जा रही है।
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