पर इस ब्रिज को मुख्य सडक़ से जोडऩे वाली एप्रोच रोड में तीन मकान आड़े आ रहे हैं। उन्हें हटाने को लेकर महापौर और कांग्रेस की महिला पार्षद आमने-आमने सामने हैं। महापौर ने सडक़ पर धरना दिया, तो पार्षद महापौर के बंगले पर प्रदर्शन करने पहुंच गईं। ब्रिज में करीब दो साल पहले ही देरी हो चुकी है।
राजधानी ही नहीं, प्रदेश के अन्य जिलों में भी कई प्रोजेक्ट केवल इसीलिए अटके हैं कि या तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के अपने-अपने हित टकरा रहे हैं या निर्माण में लगी एजेंसियों में आपसी तालमेल नहीं है। जिम्मेदार हमेशा अपने को सही और दूसरे पक्ष की गलती बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही योजनाओं का श्रेय स्वयं लेना चाहते हैं। आए दिन ऐसे मामले सामने आते हैं जब एक ही प्रोजेक्ट का उद्घाटन दो-दो बार कर दिया गया। इन सबके बीच एक दूसरा पहलू यह भी है कि योजनाओं में देरी का असर उसकी निर्माण लागत पर पड़ता है।
प्रदेश में कई प्रोजेक्ट तो ऐसे हैं जो दो से पांच साल देरी से चल रहे हैं और उनकी लागत डेढ़ से दो गुना तक बढ़ गई है। आर्च ब्रिज की ही बात करें तो देरी के कारण इसकी लागत 32 करोड़ रुपए से बढक़र 45 करोड़ रुपए हो गई। यह तो एक छोटा प्रोजेक्ट है। प्रदेश के कई जिलों में फ्लाई ओवर, रेलवे ओवर ब्रिज, सडक़ें और अस्पताल भवन पूरे नही हो पा रहे हैं। अंत में इस बढ़ी हुई राशि का भार कहीं न कहीं जनता को ही भुगतना पड़ता है। ऐसे में सवाल जनप्रतिधियों पर ही उठते हैं। जनता को राहत दिलाने और उनकी परेशानियों को दूर करने का जिम्मा उन्हीं पर है।