आजादी के लिए शुरू हुए 1857 के आंदोलन में एक ओर जहां बिहार के बाबू कुंवर सिंह और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के विरूद्ध लोहा लिया था। वहीं विंध्य में ठाकुर रणमत सिंह ने अंग्रेजों के विरूद्ध आवाज बुलंद की थी। ये शक्तियां मिलती तो आंदोलन का कुछ और ही रूख होता, लेकिन बघेलखंड में अंग्रेज इन शक्तियों को नहीं मिलने देने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाए बैठे थे। रीवा के महाराज रघुराज सिंह पर अंग्रेजों द्वारा कड़ी नजर रखी जा रही थी। इधर, ठाकुर रणमत सिंह रीवा और पन्ना के बीच का क्षेत्र बुंदेलों से मुक्त कराने में उभरकर सामने आए। बुंदेल अंग्रेजों को पूरा शह दे रहे थे।
रीवा राजघराने से ताल्लुकात होने के चलते महाराजा रीवा उन्हें आंतरिक रूप से इसमें सहायता कर रहे थे। लेकिन इस दौरान राजनीतिक एजेंट आसवार्न की गतिविधियों से क्षुब्ध होकर ठाकुर रणमत ने अंग्रजों के विरूद्ध झंडा उठा लिया। आसवार्न के बंगले पर हमला हुआ, लेकिन वह चालाकी से बच गया। इसके बाद ठाकुर रणमत सिंह और उनके साथी लाल धीर सिंह, लाल पंजाब सिंह, लाल श्यामशाह, लाल लोचन सिंह व पहलवान सिंह सहित अन्य अंग्रेजों की निगाह में आ गए। जिससे इन सभी को चित्रकूट के जंगल में शरण लेना पड़ा। जंगल से ही उन्होंने सैन्य संगठन का कार्य किया और इसके बाद साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। कई युद्ध में अंग्रेजों की सेना को मैदान छोडऩा पड़ा।
युद्ध में केशरी बुंदेला के कर दिए थे दो टुकड़े
ठाकुर रणमत सिंह द्वारा साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों से कई युद्ध लड़े गए। नागौद की अंग्रेजी रेजीडेंसी पर हमला कर वहां के रेजीडेंट भगा दिया। रेजीडेंट ने अजयगढ़ के बुन्देलों के पास शरण ली, लेकिन रणमत सिंह ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। भेलसांय के मैदान में अंग्रेजों के समर्थन में आए केशरी सिंह बुंदेला के साथ युद्ध हुआ, जिसका उन्होंने डटकर उनका मुकाबला किया। इस युद्ध में ठाकुर रणमत ने केशरी सिंह बुंदेला के युद्ध क्षेत्र में ही दो टुकड़े कर दिए थे। कुछ दिन विश्राम करने के बाद उन्होंने नौगाव छावनी पर भी धावा बोल दिया। वे तात्याटोपे से संबंध कायम कर आंदोलन को और मजबूती प्रदान करना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों की घेराबंदी को वे पार न कर सके और उन्हें वापस लौटना पड़ा। इसके बाद बरौंधा में अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी से उनका मुकाबला हुआ और उन्होंने उसका भी सफाया कर डाला।
ठाकुर रणमत सिंह द्वारा साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों से कई युद्ध लड़े गए। नागौद की अंग्रेजी रेजीडेंसी पर हमला कर वहां के रेजीडेंट भगा दिया। रेजीडेंट ने अजयगढ़ के बुन्देलों के पास शरण ली, लेकिन रणमत सिंह ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। भेलसांय के मैदान में अंग्रेजों के समर्थन में आए केशरी सिंह बुंदेला के साथ युद्ध हुआ, जिसका उन्होंने डटकर उनका मुकाबला किया। इस युद्ध में ठाकुर रणमत ने केशरी सिंह बुंदेला के युद्ध क्षेत्र में ही दो टुकड़े कर दिए थे। कुछ दिन विश्राम करने के बाद उन्होंने नौगाव छावनी पर भी धावा बोल दिया। वे तात्याटोपे से संबंध कायम कर आंदोलन को और मजबूती प्रदान करना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों की घेराबंदी को वे पार न कर सके और उन्हें वापस लौटना पड़ा। इसके बाद बरौंधा में अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी से उनका मुकाबला हुआ और उन्होंने उसका भी सफाया कर डाला।
अंग्रेजों ने उनके नाम घोषित कर दिया पुरस्कार
बरौंधा के युद्ध में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी के सफाया होने पर झल्लाएं अंग्रेजों ने ठाकुर रणमत सिंह की गिरफ्तारी के लिए मोर्चा बंदी शुरू कर दी। सफल नहीं होने पर 2 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया गया। तब तक 1857 की क्रांति भी ठंडी हो चुकी थी। महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हो चुकी थी। सेना का रूख पूरब की तरफ कर दिया गया था। इधर 1858 में अंग्रेजों ने बांदा से एक सैन्य दल ठाकुर रणमत सिंह के पीछे लगा दिया। ठाकुर रणमत अपना ठिकाना बदलते रहे। इससे उनकी गिरफ्तारी संभव नहीं हुई। पहले तो उन्होंने डभौरा के जमींदार रनजीत राय दीक्षित की गढ़ी में डेरा डाला। उसके बाद सोहागपुर गए। क्योटी की गढ़ी में रहने के दौरान एक बार अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी ने उन्हें घेर लिया, लेकिन सेना का नेतृत्व कर रहे कर्चुली ठाकुर दलथम्हन सिंह की मदद से वे निकलने में सफल हो गए।
बरौंधा के युद्ध में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी के सफाया होने पर झल्लाएं अंग्रेजों ने ठाकुर रणमत सिंह की गिरफ्तारी के लिए मोर्चा बंदी शुरू कर दी। सफल नहीं होने पर 2 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया गया। तब तक 1857 की क्रांति भी ठंडी हो चुकी थी। महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हो चुकी थी। सेना का रूख पूरब की तरफ कर दिया गया था। इधर 1858 में अंग्रेजों ने बांदा से एक सैन्य दल ठाकुर रणमत सिंह के पीछे लगा दिया। ठाकुर रणमत अपना ठिकाना बदलते रहे। इससे उनकी गिरफ्तारी संभव नहीं हुई। पहले तो उन्होंने डभौरा के जमींदार रनजीत राय दीक्षित की गढ़ी में डेरा डाला। उसके बाद सोहागपुर गए। क्योटी की गढ़ी में रहने के दौरान एक बार अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी ने उन्हें घेर लिया, लेकिन सेना का नेतृत्व कर रहे कर्चुली ठाकुर दलथम्हन सिंह की मदद से वे निकलने में सफल हो गए।
जालपा देवी मंदिर के तहखाने से हुए गिरफ्तार, दे दी गई फांसी
ठाकुर रणमति सिंह को गिरफ्तार करने को लेकर परेशान अंग्रजों ने अंतिम चाल चली। रीवा महाराज के दीवान दीनबंधु के जरिए ठाकुर रणमत सिंह के लिए आत्म समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा, लेकिन बाद में उस समय उन्हें अंग्रेजी सेना द्वारा घेर लिया गया, जब वे मित्र विजय शंकर नागर के घर जालपा देवी मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे। बाद में अनन्त चतुर्दशी के दिन 1859 में आगरा जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। इस तरह आजादी के लिए विंध्य में अंग्रेजों के विरूद्ध बिगुल फूंकने वाला विंध्य का सपूत देश के लिए न्यौछावर हो गया।
ठाकुर रणमति सिंह को गिरफ्तार करने को लेकर परेशान अंग्रजों ने अंतिम चाल चली। रीवा महाराज के दीवान दीनबंधु के जरिए ठाकुर रणमत सिंह के लिए आत्म समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा, लेकिन बाद में उस समय उन्हें अंग्रेजी सेना द्वारा घेर लिया गया, जब वे मित्र विजय शंकर नागर के घर जालपा देवी मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे। बाद में अनन्त चतुर्दशी के दिन 1859 में आगरा जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। इस तरह आजादी के लिए विंध्य में अंग्रेजों के विरूद्ध बिगुल फूंकने वाला विंध्य का सपूत देश के लिए न्यौछावर हो गया।
आज भी हैं ठाकुर रणमत सिंह के वंशज
ठाकुर रणमत सिंह का जन्म 1825 में हुआ था और उनका सही नाम रणमत्त सिंह था। वे महीपत सिंह के पुत्र थे। महीपत सिंह रीवा में तत्कालीन महाराज विश्वनाथ सिंह के विश्वासी मित्र और सरदार थे। ठाकुर रणमत सिंह, विश्वनाथ सिंह के पुत्र महाराज रघुराज सिंह के समकालीन थे। रणमत सिंह का विवाह सरगुजा के खजूर गांव में हुआ था। उनकी एक लडक़ी थी। उनके छोटे भाई जबर सिंह को संतान हुई और उनके वंशज आज भी हैं।
ठाकुर रणमत सिंह का जन्म 1825 में हुआ था और उनका सही नाम रणमत्त सिंह था। वे महीपत सिंह के पुत्र थे। महीपत सिंह रीवा में तत्कालीन महाराज विश्वनाथ सिंह के विश्वासी मित्र और सरदार थे। ठाकुर रणमत सिंह, विश्वनाथ सिंह के पुत्र महाराज रघुराज सिंह के समकालीन थे। रणमत सिंह का विवाह सरगुजा के खजूर गांव में हुआ था। उनकी एक लडक़ी थी। उनके छोटे भाई जबर सिंह को संतान हुई और उनके वंशज आज भी हैं।
कंटेंट – प्रोफेसर अखिलेश शुक्ल, प्राध्यापक टीआरएस कॉलेज रीवा।