ठाकुर रणमत सिंह द्वारा साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों से कई युद्ध लड़े गए। नागौद की अंग्रेजी रेजीडेंसी पर हमला कर वहां के रेजीडेंट भगा दिया। रेजीडेंट ने अजयगढ़ के बुन्देलों के पास शरण ली, लेकिन रणमत सिंह ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। भेलसांय के मैदान में अंग्रेजों के समर्थन में आए केशरी सिंह बुंदेला के साथ युद्ध हुआ, जिसका उन्होंने डटकर उनका मुकाबला किया। इस युद्ध में ठाकुर रणमत ने केशरी सिंह बुंदेला के युद्ध क्षेत्र में ही दो टुकड़े कर दिए थे। कुछ दिन विश्राम करने के बाद उन्होंने नौगाव छावनी पर भी धावा बोल दिया। वे तात्याटोपे से संबंध कायम कर आंदोलन को और मजबूती प्रदान करना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों की घेराबंदी को वे पार न कर सके और उन्हें वापस लौटना पड़ा। इसके बाद बरौंधा में अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी से उनका मुकाबला हुआ और उन्होंने उसका भी सफाया कर डाला।
बरौंधा के युद्ध में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी के सफाया होने पर झल्लाएं अंग्रेजों ने ठाकुर रणमत सिंह की गिरफ्तारी के लिए मोर्चा बंदी शुरू कर दी। सफल नहीं होने पर 2 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया गया। तब तक 1857 की क्रांति भी ठंडी हो चुकी थी। महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हो चुकी थी। सेना का रूख पूरब की तरफ कर दिया गया था। इधर 1858 में अंग्रेजों ने बांदा से एक सैन्य दल ठाकुर रणमत सिंह के पीछे लगा दिया। ठाकुर रणमत अपना ठिकाना बदलते रहे। इससे उनकी गिरफ्तारी संभव नहीं हुई। पहले तो उन्होंने डभौरा के जमींदार रनजीत राय दीक्षित की गढ़ी में डेरा डाला। उसके बाद सोहागपुर गए। क्योटी की गढ़ी में रहने के दौरान एक बार अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी ने उन्हें घेर लिया, लेकिन सेना का नेतृत्व कर रहे कर्चुली ठाकुर दलथम्हन सिंह की मदद से वे निकलने में सफल हो गए।
ठाकुर रणमति सिंह को गिरफ्तार करने को लेकर परेशान अंग्रजों ने अंतिम चाल चली। रीवा महाराज के दीवान दीनबंधु के जरिए ठाकुर रणमत सिंह के लिए आत्म समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा, लेकिन बाद में उस समय उन्हें अंग्रेजी सेना द्वारा घेर लिया गया, जब वे मित्र विजय शंकर नागर के घर जालपा देवी मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे। बाद में अनन्त चतुर्दशी के दिन 1859 में आगरा जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। इस तरह आजादी के लिए विंध्य में अंग्रेजों के विरूद्ध बिगुल फूंकने वाला विंध्य का सपूत देश के लिए न्यौछावर हो गया।
ठाकुर रणमत सिंह का जन्म 1825 में हुआ था और उनका सही नाम रणमत्त सिंह था। वे महीपत सिंह के पुत्र थे। महीपत सिंह रीवा में तत्कालीन महाराज विश्वनाथ सिंह के विश्वासी मित्र और सरदार थे। ठाकुर रणमत सिंह, विश्वनाथ सिंह के पुत्र महाराज रघुराज सिंह के समकालीन थे। रणमत सिंह का विवाह सरगुजा के खजूर गांव में हुआ था। उनकी एक लडक़ी थी। उनके छोटे भाई जबर सिंह को संतान हुई और उनके वंशज आज भी हैं।