करगिल की पहाडिय़ों में ऑपरेशन विजय के दौरान दुश्मन को मुंहतोड जवाब देते समय कुछ इसी जज्बे के साथ माटी का कर्ज चुका कर अमर हुए थे सीकर शहर से 25 किलोमीटर दूसर सेवद बड़ी निवासी शहीद बनवारी लाल बगडिय़ा। यह वो शहीद है जिसके बलिदान के साथ सर्वोच्च शब्द भी बेहद छोटा लगता है। बात करें शहीद के जीवन की तो बगडिय़ा 1996 में जाट रेजिमेंट में शामिल हुए थे। 1999 में करगिल युद्ध के दौरान उनकी नियुक्ति काकसर सेक्टर में थी। जहां 15 मई 1999 में बजरंग पोस्ट पर अपने साथियों के साथ पेट्रोलिंग करते समय कैप्टन सौरभ कालिया की अगुआई में उनकी मुठभेड़ पाकिस्तानी सैनिकों से हो गई। महज सात बहादुरों के सामने पाकिस्तान के करीब 200 सैनिक आ डटे और दोनों ओर से जबरदस्त फायरिंग और गोलाबारी शुरू हो गई। जिसमें काफी देर तक जाट रेजिमेंट के यह जाबांज दुश्मनों के दांत खट्टे करते रहे। लेकिन, जब हथियार खत्म हो गए, तो दुश्मनों ने उन्हें चारों और से घेरकर अपनी गिरफ्त में ले लिया। जिसके बाद उनके साथ 24 दिन तक बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया गया। उनके हाथ पैर की अंगूली काटने के अलावा, गरम सलाखों से गोदने और आंख-कान भेदने के बाद उनका शव क्षत-विक्षत हालत में छोड़ दिया गया। जो भारतीय सेना को 9 जून को मिला। तिरंगे में लिपटा शहीद का शव जब चिथड़ों के रूप में घर पहुंचा तो दिल को गहराईयों तक झकझोर देने वाले दृश्य को भी देखना बेहद दुष्कर हो गया था। उस घटना का जिक्र होते ही आंखों से उमड़ते आंसुओं के सैलाब को वीरांगना आज भी नहीं रोक पाती है, वहीं सुनने वाले की भी रुह तक सिहर उठती है।
अब छोटे के कंधों पर जिम्मेदारी
शहीद परिवार की देखरेख का जिम्मा फिलहाल शहीद बनवारी लाल बगडिय़ा के छोटे भाई सीताराम संभाल रहे हैं। वे बताते हैं कि शहीद बनवारी लाल हमेशा कहा करते थे कि उन्हें कुछ हो जाए तो वीरांगना की जिम्मेदारी उनके कंधों पर रहेगी। शहीद से मिली उसी जिम्मेदारी को निभाते हुए वे भी वीरानंगा और बच्चों से साथ गांव से दूर रह कर उनकी परवरिश कर रहे हैं।