भारत अध्यात्म और देवस्थानों के कारण दुनिया भर में अपनी अलग पहचान रखता है। वैसे तो देश के कोने-कोने में स्थित हर एक मंदिर के प्रति श्रद्धालुओं की विशेष आस्था है। लेकिन हिंदू धर्म में भगवान शिव के प्रति गहरी और विशेष आस्था है। शिव को अनंत माना गया है। पुराणों के अनुसार शिव ही सृष्टि के सृजनकर्ता हैं।
ऐसे में पत्रिका आज आपको बताने जा रहा है भगवान शिव के ही एक विशेष रूप के बारे में जो शंकर प्रभु के बारहवां अवतार के रूप में प्रसिद्ध है। राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में भगवान शंकर का बारहवां अवतार ‘घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म में एक कहानी प्रचलित है माना जाता है कि घुश्मा के मृत पुत्र को जीवित करने के लिए अवतरित प्रभु शिव ही घुमेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से जाने जाते हैं। यह ज्योतिर्लिंग ग्राम शिवाड जिला सवाई माधोपुर राजस्थान में स्थित है।
शंकर का बारहवां ज्योतिर्लिंग शिवाड़ में क्यों अवस्थित है। शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का वर्णन है। इसकी कथा घुश्मा नामक एक ब्राह्मणी की शिवभक्ति पर आधारित है। शिवपुराण मेंं वर्णित कथा के अनुसार दक्षिण दिशा में श्वेत धवल पाषाण का देवगिरि पर्वत के पास सुधर्मा नामक धर्मपरायण भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण रहते थे। उनके सुदेहा नामक पत्नी थी। संतान सुख से वंचित रहने और पड़ोसियों के व्यंगय बाण सुनने से परेशान होकर पति का वंश चलाने के लिए सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा का विवाह सुधर्मा के साथ करवाया।
घुश्मा,भगवान शंकर की भक्त थी। वह प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर पूजा अर्चना करती और उनका विसर्जन पास के ही सरोवर मे कर देती थी। इस दौरान आशुतोष की कृपा से घुश्मा ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। इस पर सुदेहा को बेहद ख़ुशी हुई।
लेकिन बहन घुश्मा के पुत्र के बड़े होने के साथ-साथ उसे लगा की सुधर्मा का उसके प्रति आकर्षण एंव प्रेम कम होता जा रहा है। पुत्र के विवाह के उपरांत सोतियाडाह के अतिरेक के कारण उसने घुश्मा के पुत्र की हत्या कर दी एंव शव को तालाब मे फेंक दिया।
प्रात:काल जब घुश्मा की पुत्रवधू ने अपने पति (घुश्मा के पुत्र) की शय्या को रक्त रंजित पाया तो विलाप करती हुई अपनी दोनों सासों को सूचना दी। इस दौरान घुश्मा जो शिव पुजा मे लीन थी, निर्विकार भाव से अपने आराध्य को श्रृद्धा सुमन समर्पण करती रही।
घर मे कोहराम मच गया था सुदेहा, सुधर्मा व पुत्रवधू की मार्मिक चीत्कारें,विलाप एंव पुत्र की रक्त रंजित शय्या भी घुश्मा के भक्तिरत मन मे विकार उतपन्न नहीं कर सकी। घुश्मा ने हमेशा की तरह ही पार्थिव शिवलिंगों का विसर्जन सरोवर में कर आशुतोष (भगवान शंकर) की स्तुति की तो उसे पीछे से मां-मां की आवाज सुनाई दी जो उसके प्रिय पुत्र की थी। जिसे मरा हुआ मान पूरा परिवार शोक में था। घुश्मा ने उसे शिव इच्छा मानकर भोले शंकर का स्मरण किया।
इस दौरान तेज गर्जना के साथ आकाशवाणी हुई की, हे! घुश्मा तेरी सौत सुदेहा दुष्टा है उसने तेरे पुत्र को मारा है। मैं उसका अभी विनाश करता हूं। लेकिन घुश्मा ने भगवान से विनती कर उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और कहा कि ‘भगवान आपके दर्शन मात्र से पातक नहीं ठहरता, इस समय आपका दर्शन करके उसके पाप भस्म हो जाये’।
भगवान भोलेनाथ घुश्मा की बात सुनकर प्रसन्न होकर प्रकट हुए और वरदान दिया की, मैं आज से तुम्हारे ही नाम से “घुश्मेश्वर” रूप मे इस स्थान पर वास करूंगा और “यह सरोवर शिवलिंगों का आलय हो जाये”।
शिवपुराण कोटि रुद्र संहिता के अध्याय 33 में घुश्मेश्वर प्रादुर्भाव कथा का उल्लेख है। इस कथा के अनुसार घुश्मा नामक ब्राह्मणी की भक्ति से प्रसन्न हो भगवान शंकर ने घुश्मा को यह वर दिया।
शिवाड़ के शिवालय सरोवर में खुदाई में जो शिवलिंग मिले उन्हें देखकर यह मान्यता और दृढ़ हो जाती है कि ये वे ही शिवलिंग थे जिन्हें घुश्मा शिवालय सरोवर में विसर्जित करती थी।
ऐसे दिव्य ज्योतिर्लिंगों के प्राकट्य अवधि के बारे में कोई अनुमान लगाना आसान बात नहीं है। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि भगवान घुश्मेश्वर का प्राकट्य यहां सतयुग यानी भगवान राम के प्राकट्य के बाद हुआ होगा क्योंकि ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की मान्यता है और कहते हैं कि लंका विजय के बाद इसकी स्थापना स्वयं भगवान राम ने की थी।
शिवपुराण में वर्णित कथा के प्रत्येक तथ्य शिवाड़ स्थित घुश्मेश्वर महादेव मंदिर से मेल खाते हैं। इसलिए इस ज्योतिर्लिंग को भगवान शंकर का बारहवां ज्योतिर्लिंग मानने में कोई शंका नहीं है। इन्हीं ज्योतिर्लिंगों में द्वादशवें ज्योतिर्लिंग का नाम ‘घुश्मेश्वर’ है। इन्हें ‘घृष्णेश्वर’ और ‘घुसृणेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है। भक्तों का ये भी मानना है कि आज भी इस सरोवर की खुदाई कराई जाए तो असंख्य शिवलिंग निकल सकते हैं।