मैहर शारदा धाम में भारत के कई राज्यों से आए हुए भक्तों ने माता के दर पर हाजरी लगाई। लेकिन पहली बार भारी संख्या में युवा वर्ग भी भक्ति के प्रति आस्था दिखाई है। दूर दराज से आए भक्तों ने माता का आशीर्वाद लिया और अपनी खुशहाली की कामना की। माई के दर पर पहुंचने के लिए भक्तों ने सीढिय़ों के साथ-साथ समिति की वैन और रोपवे का भी सहारा लिया।
मुख्य पुजारी देवी प्रसाद ने बताया कि 52 शक्ति पीठों में मैहर शारदा ही ऐसी देवी जहां अमरता का वरदान मिलता है। मां की कृपा कब किस भक्त पर हो जाए ये कोई नहीं जानता है। देवी प्रसाद ने कहा कि हमारी चौथी पीढ़ी माता की सेवा कर रही है। सन् 1967 में हमारे पिता ने माता की पूजा-अर्चना करने का अवसर दिया। उस समय त्रिकूट पर्वत पर वीरान जंगल था। मैंने भी कई कथाएं आल्हा-उदल और पृथ्वी राज सिंह चौहान की सुनी थी। मुझे भी लगा की माता ने आल्हा को अमरता का वरदान दिया है। आज भी कई भक्त कहते है कि रोजाना सुबह घोड़े की लीद और दातून पड़ी रहती है। वहीं कई लोग दावा कर रहे है कि माता की रोजाना पहली पूजा आल्हा ही करता है। लेकिन मैं इन सब बातों का दावा नहीं कर सकता।
मैहर मंदिर के महंत पंडित देवी प्रसाद बताते हैं, अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं। जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं, तो पूजा की हुई मिलती है। इस रहस्य को सुलझाने का प्रयास भी कई बार किया गया, लेकिन रहस्य बरकरार है। माता के सबसे बड़े भक्तों में आल्हा और ऊदल का नाम आता है। ये दोनों वो महारथी हैं, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था। इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच मैहर मंदिर की खोज की थी।
मां शारदा की मूर्ति के चरण के नीचे अंकित एक प्राचीन शिलालेख है। जो मूर्ति की प्राचीन प्रमाणिकता की पुष्टि करता है। मैहर के पश्चिम दिशा में त्रिकूट पर्वत पर शारदा देवी व उनके बायीं ओर प्रतिष्ठापित श्रीनरसिंह भगवान की पाषाणमूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा है। बताया जाता है कि लगभग 2000 वर्ष पूर्व विक्रमी संवत् 559 शक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, दिन मंगलवार, ईसवी सन् 502 में स्थापित कराई गई थी। मां शारदा की स्थापना तोरमान हूण के शासन काल में राजा नुपुल देव ने कराई थी।
मैहर केवल शारदा मंदिर के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि इसके चारों ओर प्राचीन धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। मंदिर के ठीक पीछे इतिहास के दो प्रसिद्ध योद्धाओं व देवी भक्त आल्हा-उदल के अखाड़े हैं। यहीं एक तालाब और भव्य मंदिर है, जिसमें अमरत्व का वरदान प्राप्त आल्हा की तलवार उन्ही की विशाल प्रतिमा के हाथ में थमाई गई है।
देवी प्रसाद ने बताया कि हां 50 वर्षो की पूजा के दौरान एक बार मुझे एहसास हो चुका है। एक बार मैं पूजा कर घर चला गया। सुबह मंदिर का पट खोलकर पूजा की शुरुआत की तो पहले से ही पुष्प माता के दर पर चढ़े थे। फिर भी मन नहीं माना तो माता की चुनरी को उठाया तो अंदर भी पुष्प दिखाई दिए। तब से हमें भी एहसास हुआ की मां अजर-अमर है। यह जरूर भक्तों को मन चाहा वरदान देती है। देवी प्रसाद ने बताया कि मैहर वाली शारदा की मुझसे पहले पिता जी हमारे दादा-परदादा पूजा कर चुके है। मैं भी 50 वर्ष मां की सेवा में बिताने के बाद माता का भक्त हो चुका हूं अब जो भी मेरा जीवन बचा है वह भी माता को अर्पण है। दुनिया की माया मोह छोड़ दिन रात माता की पूजा में लीन रहता हूं।