इकबाल बताते हैं कि वो भोपाल की जिस कालोनी में रहते थे वहां 180 परिवारों के बीच उनका परिवार अकेला मुस्लिम परिवार था। एक दिन वो मंदिर में प्रसाद लेने गए तो वहां किसी बच्चे ने कह दिया कि तुम तो मुसलमान हो! उसी दिन से उन्होंने हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई को खत्म करने की ठान ली। इसके बाद से उन्होंने नमाज भी पढ़ी और आरती भी की। मंदिर भी गए और मस्जिद भी जाते रहे।
इकबाल के अनुसार बाल्यकाल में उन्होंने देखा कि एक तरफ हजरत अली हैं और दूसरी तरफ बजरंग बली हैं। उन्हे बाल्यकाल में ही यह बात समझ आ गई कि हनुमान जी को मना लो तो श्रीराम मिल जाते हैं और मोहम्मद अली को मना लो तो अल्लाह मिल जाते हैं। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिर अब्बू के साथ मस्जिद और पंडित जी के साथ मंदिर जाना शुरू कर दिया।
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सुबह श्री राम पढ़ते और शाम को नमाज पढ़तेइकबाल बताते हैं कि वह बचपन से ही कान्हा, भारत माता, भरत और हनुमान का रोल करने लगे थे। यह भाव जैसे उनके अंदर रम गए। इकबाल के अनुसार वह इंजीनियर बनना चाहते थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि देश में जाति और धर्म को लेकर इतनी खाई है तो इसे पाटने में लग गए और लोगों को अब यही संदेश दे रहे हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना
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खून में अंतर करें तो मानूएक सवाल के जवाब में इकबाल कहते हैं कि जो लोग हिंदू-मुस्लिम में फर्क करते हैं वो अगर खून में फर्क करें तो मान लिया जाए। उन्होंने कहा कि जब हमारा कोई अपना अस्पताल में होता है और हमें खून की आवश्यकता होती है तो उस समय हम नहीं पूछते कि ये खून हिंदू का है या मुसलमान का है। इकबाल का कहना है कि जो लोग बिरादरी बताते हैं वो अगली बार जब खून लेने जाए तो वहां जाकर भी पूछे कि किस बिरादरी का खून है ?