सागर

विलुप्त होने के कगार पर बुंदेली लोकनाट्य कला

आधुनिकता के इस दौर में अन्य लोककलाओं की भांति बुन्देली लोक नाट्य का अस्तित्व तेजी से सिमटता जा रहा है जो कि चिंताजनक है।

सागरFeb 21, 2019 / 02:14 pm

govind agnihotri

Bundeli Folk dance Art faces of extinction

डॉ. शरद सिंह . सागर. बुंदेलखंड में लोकनाट्य अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन उसका स्वरूप जिस तरह प्रदूषित होता जा रहा है वह उसके अस्तित्व को संकट में डाल सकता है। जिस तरह लोकगीत और लोकनृत्यों के नाम पर जो प्रस्तुतियां दी जा रही हैं या डिजिटल की जा रही हैं उनमें लोक की वास्तविक कला के बजाय फूहड़पन अधिक रहता है। इसी तरह लोक नाट्यों पर भी संकट के बादल छा चुके हैं। चंद लोक कला अकादमियां इनके नाम को बचाए हुए हैं। अन्यथा मूल स्वरूप में ये विलुप्ति के कगार पर हैं। बुंदेलखंड में लोकनाट्य बहुत लोकप्रिय रहे हैं, लेकिन आज उनका चलन तेजी से घट चला है। शहरी क्षेत्रों के निवासी तो लोकनाट्यों से भलीभांति परिचित भी नहीं हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश स्थित तीन जिलों में विगत दिनों हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि 95 प्रतिशत लोग बुंदेली लोकनाट्यों के बारे में जानते ही नहीं हैं। वे सिर्फ रामलीला को ही लोकनाट्य के रूप में जानते हैं। जबकि बुन्देखण्ड में लोकनाट्यों की समृद्ध परम्परा रही है। प्रमुख बुन्देली लोकनाट्य हैं – कांडऱा, रहस, स्वांग और भंडैती।

कांडऱा लोकनाट्य में निर्गुनिया भजन गाता है तथा गीत के अनुरूप आंगिक अभिनय कर नृत्य तथा हाव-भाव प्रदर्शित करता है। इसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर कथा तथा स्वांग शैलियों का समावेश हुआ। कांडऱा का मंच चौपाल-चबूतरा, मंदिर प्रांगण आदि होता था। यद्यपि समय के साथ इसे शास्त्रीय मंच पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा है। इसकी प्रस्तुति के समय मंच के पृष्ठ भाग के करीब वादक-मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं। जबकि नर्तक सारंगी वादन करता है और निर्गुनिया मंगला-चरण प्रारंभ। वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते किन्तु मुख्य नायक कांडऱा जो सम्भवत: कान्हा का स्वरूप है। सराई पर रंग बिरंगा जामा, पहनकर, सिर पर कलंगीदार पगड़ी बांधता है। जामा पर सफेद या रंगीन कुर्ती पहनता है। बीच-बीच में फिरकी की भांति नृत्य करता है। निर्गुनिया गीत संवाद का एक उदाहरण देखें-
पहला व्यक्ति- ऐसो सो गओ दावेदार, खबर नईं जा तन की।
जम के दूत द्वार पै ठाड़े हम पै कही ना जाए।।
दूसरा व्यक्ति- सासुरो छोड़ मायको छोड़ो, छूटो अदपर डूबी नाव।
कहत कबीर सुनो भई साधो, सुंदरी खत पछार।।


कृष्ण की रासलीला से प्रभावित बुन्देली अंचल में “रहस” परम्परा प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित हैं- एक, कतकारियों की रहस लीला और दूसरा लीला नाट्य। कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से, पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब “रहस” की सही मानसिकता बना देते हैं। “रहस” में अधिकांशत: दधिलीला, चीरहरण, माखन चोरी, बंसी चोरी, गेंद लीला, दानलीला आदि प्रसंग अभिनीत किए जाते हैं। रहस का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदीतट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरूष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशत: पद्यमय होते हैं। लीलानाट्य के रूप में अभिनीत Óरहस’ अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार “रास चौंतरा” होता है।’
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राधा-कृष्ण बनने वाले पात्र “सरूप” कहे जाते हैं। वाद्य के रूप में “मृदंग एवं परवावज” (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है। रोचकता यह कि रहस के अधिकतर संवाद पद्य में होते हैं। नाट्य के दौरान काम में लाए जाने वाले उपकरण प्राकृतिक होते हैं, जैसे चीरहरण नाट्य नदी या तालाब के किनारे कतकारियां खेलती हैं इसलिए तट पर लगे वृक्ष और कतकारियों के वस्त्र ही उपकरण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसमें एक स्त्री कृष्ण बनती है तथा शेष स्त्रियां गोपियां बनती हैं। कृष्ण के द्वारा गोपियों की राह रोकना दिलचस्प प्रसंग होता है। संवाद देखिए-

कृष्ण- ब्रज-गोकुल के हम रहवैया, किसन हमारो नाम।
दान दई को लेत सबई सें, एई हमारो काम।।
गोपी- बिन्द्राबन की कुंज गलिन में छेड़त नार पराई।
बने फिरत हो ब्रज के राजा, करत रये हरवाई।

राम विषयक रहस में भी कृष्ण रहस की छटा दिखाई देती है। जो इसमें समाहित हास्य एवं शृंगार के संवादों से स्पष्ट झलकती है। राम विषयक रहस में सोहर, गारी आदि का भी प्रयोग संवाद के रूप में पाया जाता है जिसका प्रसंग प्राय: राम जन्मोत्सव एवं राम विवाह होता है। यह खुले प्रांगण के बजाए घर के भीतर अथवा बाग-बगीचों में महिलाओं के बीच खेला जाता है। इसमें गारी का प्रयोग होते हुए भी मर्यादा का ध्यान रखा जाता है, जैसे:-
1. जन्में राम सलोना अबध में, जन्में राम सलोना।
रानी कौसिल्या के राम भए हैं, राजा दसरथ के छोना।।
2.हमने सुनी अबध की नारीं, दूर रयें पुरसन सें।
खीर खाय सुत पैदा करतीं लाला बड़े जतन सें।।

 

Bundeli Folk dance Art faces of extinction


स्वांग बुंदेलखंड का पारंपरिक लोक नाट्य बुंदेलखंड में स्वांग का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। स्वांग प्राय: लोक नृत्य राई के विश्राम के क्षणों में किया जाता है। इसलिए स्वांग की अवधि अधिक से अधिक 15 से 20 मिनट तक होती है। इसी के अनुरूप बुंदेली स्वांग का रूप भी निर्धारित हुआ बुंदेलखंड में इसे नकल उतारना कहते हैं। स्वांग का अर्थ रूप धारण करने से लिया जाता है। स्वांग भारतीय लोक के अति प्राचीन परंपरा है। राई नृत्य किसी भी समय किया जाता है विशेषकर जन्म, विवाह, तथा अन्य खुशी के अवसर पर तभी स्वांग भी होता है। स्वांग का कोई विशेष मंच नहीं होता जहां राई नृत्य किया जाता है। उसी जगह स्वांग किए जाते हैं। स्वांग राई का मंचन प्राय घर अथवा चौराहे का आंगन होता है समतल धरती पर चारों और दर्शक बैठ जाते हैं, बीच में जगह छोड़ देते हैं। यही जगह स्वांग राई का उपयोग मंच होता है। पहले मशाल के साथ स्वांग किए जाते थे, आजकल पर्याप्त विद्युत प्रकाश मे स्वांग का मंचन जगमगाता है। स्वांग के पात्र की राई गायन और दर्शकों के बीच होते हैं स्वांग में अधिक से अधिक तीन या चार पात्र होते हैं महिला पात्र की भूमिका भी पुरुष निभाते हैं। लेकिन मां- भाभी आदि की भूमिका नर्तकी बेड़नियां निभाती हैं। पात्रों की वेशभूषा बुंदेली होती है पुरुष धोती, कुर्ता, बंडी पहनते हैं।
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नए लड़के पेंट, शर्ट, कोट, पहनकर अभिनय करते हैं स्त्री पात्र पुरुष साड़ी लपेट कर मुंह ढंके अभिनय में उतरते हैं जिसका उद्देश्य स्वांग के विषय की पूर्ति करना होता है कहीं-कहीं पुरुष स्त्री वेश में पूर्ण सिंगार के साथ उतरते हैं। धोती घाघरा चुनरी पोलका का सलवार कुर्ता आदि पहनते हैं। स्त्री पात्र बुंदेली कहने भी पहनती है स्वांग में एक विदूषक भी होता है जिस की वेशभूषा विचित्र होती है विदूषक हर तरह से चंचल और नॉट गतिविधि के केंद्र होता है। समाज के हर तबके के पात्रों का स्वरूप प्रतीकात्मक होता है। स्वांग में संगीत पक्ष की गुंजाइश बहुत कम होती है फिर भी कभी-कभी प्रसंग अनुकूल नगढीया अथवा मृदंग की थाप अवश्य दी जाती है गीत और संगीत स्वांग के अंत में पूर्ण सक्षमता के साथ मंच पर अवतरित होता है तब स्वांग के सारे पाठ नृत्य में शामिल होते हैं और स्वांग के बीच गाना भी होता है जो स्वांग के कथानक को आगे बढऩे के लिए होता है। स्वांग में बुंदेली बोली के पारंपरिक वैभव के दर्शन सहज रुप से होते हैं बुंदेली स्वांग की स्वतंत्र हिसार बनाने की आज जरूरत है तभी स्वांग अपनी अलग व्यापक पहचान बना पाएगा स्वांग का रूप प्रस्तुत की ओर से लिखे रंग का कर्म ही दृष्टि से जब तक मंच पर नहीं लाया जाता तब तक स्वांग राई के मध्य में रहेगा स्वांग में लोक नाट्य तत्व मौजूद है स्वांग बुंदेलखंड का एक जवान लोकनाट्य है।

बुंदेलखंड में प्रचलित लोक नाट्य में स्वांग सर्वाधिक प्रचलित एवं जन प्रिय रूप है स्वांग प्रय: खुशी के अवसरों पर राई नृत्य के बीच में प्रदर्शित होता है यह नौटंकी से अधिक प्राचीन है स्वांग सामाजिक,सांस्कृतिक, विसंगतियों,से संबंधित होते हैं। इसके मूल में कोई कथा, घटना, लोक, गीत, लोक समस्या पहेलियां जादू टोना आदि कुछ भी हो सकता है लोग जीवन को सरस रखने के उद्देश्य से हादसे का आयोजन स्वांग के माध्यम से होता है प्रतीक स्वांग की रीढ़ है। राई नृत्य के बीच में होने वाले स्वामी को एक निश्चित समय माना गया है यह क्रम में अधिक से अधिक चार या पांच स्वांग खेले जाते हैं इसे विभिन्न त्योहारों का उत्सवों में प्रस्तुत किया जाता है।

बुंदेली लोककला के अध्येता स्व. डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त का मानना था कि ”बुंदेली स्वांग के ही रूप का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि ना तो वह केवल नकल है और ना लंबा नाटक यह संगीत नौटंकी और भगत में भिन्न है। बुंदेली स्वांग का स्वरूप अन्य लोकनाट्य की तरह लोकधर्मी है स्वांग राई के अंतर्गत नाटक गतिविधि है। इसका मूल उद्देश्य हास्य और व्यंग के माध्यम से शुद्ध मनोरंजन करना है।ÓÓ
भंडैती बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेशी अंचल की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा है। तुलसीदास की Óचोर चतुर वटपार नट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड’ तो केशव दास की Óकहूं भांड भांडयों करैं मान पावै’ पंक्तियों 17वीं सदी भंडैती के प्रचलन का पता चलता है। भंडैती का मंच खुला मैदान या चबूतरा होता था। पात्र कोई शृंगार नहीं करते थे, बल्कि अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी, और चुटीले हास्य प्रस्तुत करते थे। इनमें तीखे व्यंग्य होते थे। वर्तमान में इनका प्रचलन बहुत ही कम हो गया है।
यद्यपि आधुनिकता के इस दौर में अन्य लोककलाओं की भांति बुन्देली लोक नाट्य का अस्तित्व तेजी से सिमटता जा रहा है जो कि चिंताजनक है। इन्हें सहेजने और पुन: चलन में बनाए रखने के लिए जरूरी है नुक्कड़ नाटकों की तरह इन्हें खेले जाने की तथा इनसे जुड़े कलाकारों को प्रोत्साहित किए जाने की। बिना गंभीर प्रयास के इस कला को बचा पाना संभव नहीं है।

लेखिका साहित्यकार एवं समाजसेवी हैं
रजाखेड़ी, मकरोनिया, सागर (मप्र)

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