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महिला-प्रगति का सच
वह कहावत है न कि चावल का एक दाना ही काफी होता है यह जानने के लिए कि चावल पका है या नहीं। इसी तरह देश में अमूमन महिलाओं की दशा को आंकने के लिए बुंदेलखंड में महिलाओं की दशा पर दृष्टिपात किया जा सकता है। वास्तविक दशा यह है कि बुंदेलखण्ड में अभी भी बहुत-सी महिलाएं शिक्षा से कोसों दूर हैं। जो साक्षर हैं उनमें भी बहुत-सी सिर्फ हस्ताक्षर करना जानती हैं, वह भी कांपती उंगलियों से। बुंदेलखंड में अभी भी महिलाओं को अपनी कोख पर अधिकार नहीं है। उनका मातृत्व उनका परिवार और परिवार के पुरुष तय करते हैं। नौकरी करने का निर्णय अधिकांशत: परिस्थितिजन्य होता है, भले ही उसके पीछे लड़की की अच्छी जगह शादी हो जाने का मंशा ही क्यों न हो। सेहत के मामले में आम भारतीय महिलाओं की भांति बुंदेलखंड की महिलाएं भी जागरूक नहीं हैं। अधिकतर महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों का पूरा ध्यान रखती हैं, लेकिन स्वयं के पोषण और स्वास्थ्य के बारे में लापरवाही बरतती हैं। क्योंकि यही सिखाया गया है महिलाओं को सदियों से कि स्वयं को समर्पित बनाए रखें। यहां यह भुला दिया जाता है कि एक कमजोर और बीमार स्त्री परिवार की बेहतर देखभाल नहीं कर सकती। अधिकतर परिवारों में पुरुष सदस्य भी महिला सदस्य की सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं। बुंदेलखंड में महिलाएं और बालिकाएं आज भी पीने का पानी भरने के लिए सिर पर घड़े रख कर कई किलोमीटर चलती हैं। यह सच्चाई स्त्री-पुरुष समानता की तो कदापि नहीं हैं। यह सच्चाई तो समाज और हमारी मानसिकता के दोहरेपन को रेखांकित करती है। राजनीति में भी महिलाओं की ईमानदार भागीदारी बहुत कम है। ईमानदार भागीदारी से आशय है कि वे रबर स्टैम्प बनकर नहीं बल्कि स्वनिर्णय के अधिकार सहित राजनीति में आने से है। जाहिर है कि इसमें पुरुषों को भी अपनी सदाशयता दिखाते हुए स्वयं के अधिकारों के लोभ पर काबू रखना होगा। बेशक यह समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण और निर्णायक कदम होगा।
महिला, औरत, वूमेन या कोई और संबोधन- किसी भी नाम से पुकारा जाए, महिला हर हाल में महिला ही रहती है और उसे महिला रहना भी चाहिए। प्रकृति ने महिला और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। यदि प्रकृति चाहती तो एक ही तरह के प्राणी को रचती और उसे उभयलिंगी बना देती। किन्तु प्रकृति ने ऐसा नहीं किया। संभवत: प्रकृति भी यही चाहती थी कि एक ही प्रजाति के दो प्राणी जन्म लें। दोनों में समानता भी हो और भिन्नता भी। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक बनें, प्रजनन करें और अपनी प्रजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाएं। पुरुष और महिला ने मिल कर जिस समाज को गढ़ा था, दुर्भाग्यवश, पुरुष उसका मालिक बनता चला गया और महिला दासी। इतिहास साक्षी है कि पुरुषों ने युद्ध लड़े और खामियाजा भुगता महिलाओं ने। जब महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने दमन का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पूरी दुनिया की औरतें संघर्षरत हैं किन्तु समानता अभी भी स्थापित नहीं हो सकी है। प्रयास निरन्तर किए जा रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी संगठन प्रयास कर रहे हैं लेकिन महिलाओं की अशिक्षा, अज्ञान और असुरक्षा आज भी उनके विकास में बाधा बनी हुई है। शिक्षा में कमी और हमारे रूढिग़त सामाजिक ढांचे के कारण अब भी ग्रामीण भारत में लड़कियों को एक जिम्मेदारी या पराया धन माना जाता है। पढऩे-लिखने और खेलने-कूदने की उम्र में उनका विवाह कर दिया जाता है। कई बार तो वे किशोरावस्था में ही मां भी बन जाती हैं। तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद अब भी 27 फीसदी लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से कम की आयु में हो जाता है।
समानता पाने के लिए लंबा संघर्ष
समानता पाने का दुनिया की महिलाओं का यह संघर्ष एक शताब्दी से भी अधिक समय का है। सन् 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में प्रदर्शन करते हुए एक मार्च निकाला था। उनकी मांगें थी- मतदान का अधिकार, काम के घंटे कम करने के लिए और योग्यतानुसार पुरुषों की तरह वेतन दिया जाए। इस प्रदर्शन के लगभग एक साल बाद 28 फरवरी 1909 को अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने महिला दिवस मानाने की घोषण की और अमेरीका में में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। दुनिया के इस पहले महिला दिवस ने मानो समूचे महिला जगत को प्रेरणा दी और सन् 1910 में जर्मनी की क्लारा जेटकिन ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। क्लारा ने सुझाव दिया की दुनिया के हर देश की महिला को अपनी मंागे प्रकट करने और विचार साझा करने के लिए एक दिन तय करते हुए महिला दिवस मनाना चाहिए। क्लारा के इस सुझााव को 17 देशों की 100 से ज्यादा महिलाओं का समर्थन मिला और इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सुनिश्चित किया गया। उस समय प्रथमिक उद्देश्य था महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाना। इसके बाद, 19 मार्च 1911 को पहली बार आस्ट्रिया डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। सन् 1913 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के लिए एक सर्वमान्य तिथि घोषित की गई। यह तिथि है 8 मार्च। अब हर वर्ष 8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।
दो तस्वीरें हैं महिलाओं की
प्रगति के हिसाब से समूची दुनिया की महिलाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर उन महिलाओं की है जो अपने साहस, अपनी क्षमता और अपनी योग्यता को साबित कर के पुरुषों की बराबरी करती हुई प्रथम पंक्ति में आ गई हैं या प्रथम पंक्ति के समीप हैं। दुनिया के उन देशों में जहां महिलाओं के अधिकारों की बातें परिकथा-सी लगती हैं, औरतें तेजी से आगे आ रही हैं और अपनी क्षमताओं को साबित कर रही हैं। चाहे भारत हो या इस्लामिक देश, औरतें अपने अधिकार के लिए डटी हुई हैं। वे चुनाव लड़ रही हैं, कानून सीख रही हैं, आत्मरक्षा के गुर सीख रही हैं और आम महिलाओं के लिए आइकन बन रही हैं। औरत की दूसरी तस्वीर वह है जिसमें औरतें प्रताडऩा के साए में हैं और अभी भी संघर्षरत हैं। वैश्विक स्तर पर कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लैंगिक भेद पूरी तरह समाप्त हो गया हो।
महिलाओं के लिए खतरे भी बढ़े हैं
ग्लोबलाइजेशन ने महिलाओं के सामने जहां प्रगति के अनेक रास्ते खोले हैं, वहीं अनेक संकट भी खड़े कर दिए हैं। मानव तस्करी और इंटरनेट के जरिए ब्लैकमेलिंग सबसे बड़ा खतरा है। चाहे मोबाईल कैमरा हो या चेंजिंग रूम या बाथरूम में छिपा हुआ कैमरा महिलाओं लिए नित नए संकट खड़ा करता रहता है। अचानक या धोखे से तस्वीर खींच लिया जाना और फिर उसे इंटरनेट पर अपलोड कर देने की धमकी दे कर ब्लैकमेल करना प्रगति करती स्त्री की राह में एक ऐसी बाधा है जिससे स्वयं महिलाओं को मीटू जैसे कैम्पेन से जुड़ कर अपनी झिझक को तोडऩा होगा और काटना होगा उन जंजीरों को जो उन्हें ब्लेकमेल होने की मानसिकता से बांध देती हैं। वैसे स्त्री अस्मिता पर कैमरे के द्वारा हमले की घटनाओं का निरंतर बढऩा चिन्ताजनक है। स्त्री अस्मिता के मामले में पूरी दुनिया संवेदनषील रहती है। कोई भी देष स्त्रियों की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे मामलों को रोकने के लिए जहां स्त्रियों की जागरूकता जरूरी है वहीं कठोर कानून भी आवष्यक हैं। त्वरित जांच और कड़ी सजा ही ऐसे अपराधियों के हौसले तोड़ सकती हैं।
आगाज हो पिछड़े इलाकों से
हमारे देश में भी संविधान द्वारा समान हक पाने के बावजूद आज भी स्त्रियां दोयम दर्जे पर हैं। यह स्थिति घर की देहरी से लेकर दफ्तर तक, हर जगह मौजूद है। हमारे देश में अनेक स्थानों पर महिलाओं को ना तो समान वेतन मिल रहा है और ना ही आर्थिक, राजनीतिक नेतृत्व में पर्याप्त प्रतिनिधित्व। इतना ही नहीं, अपने ही घर के भीतर भी उन्हें महिला होने के नाते कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस दोहरे रवैए के चलते वे आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। बैलेंस फॉर बेटर की थीम को सिर्फ़ कागजी नहीं वरन् वास्तविक व्यवहार में लाते हुए महिलाओं को समता का अधिकार दिया जाए तो समाज की तरक्की का रास्ता कोई नहीं रोक सकता है। थीम को साकार करने के लिए यह जरूरी है कि बैलेंस फॉर बेटर का आगाज हो महानगरों से नहीं, बल्कि बुंदेलखंड जैसे देश के पिछड़े इलाकों से।