
Old Tales Madhya Pradesh
रीवा. विंध्य की राजनीति में यदि नजर दौड़ाए तो दो ऐसे दैदीप्यमान सितारे चमकते हुए नजर आते हैं, जिन्होंने न केवल विंध्य की सियासी तासीर बदली बल्कि दिल्ली में भी अपनी धमक बनाए रखी। जब उनका दौरा था तो मप्र की राजनीति यदि करवट बदलती थी तो उसका केन्द्र रीवा ही होता था। हम बात कर रहे हैं पूर्व केन्द्रीय मंत्री कुंवर अर्जुन सिंह और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी की। ये दो ऐसे राजनेता हुए जिन्होंने धारा के विपरीत अपनी राजनीतिक नाव को खेकर ले गए। और सियासत में अपना एक मुकाम तय किया। जिनसे आज भी विंध्य के नेता प्रेरणा लेते हैं।
बात 1998 की हैं जब श्रीनिवास तिवारी विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे। 1998 के चुनाव में उन्होंने मनगवां विधानसभा क्षेत्र से भाकपा के गिरीश गौतम को परास्त किया था। तब उनकी मप्र की राजनीति में तूती बोलती थी। राजनीति का केन्द्र अमहिया बन गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह (श्रीनिवास तिवारी) के शरणागत थे।
राजनीतिक हलकों में यहां तक चर्चा चल पड़ी थी कि अमहिया से ही मप्र की सरकार चलती है। बड़े-बड़े नेता, मंत्री-मनिस्टर, डीएम-एसपी उनकी हाजिरी बजाते थे। अमहिया से प्रशासन चलता था और इसीलिए मनगवां विधानसभा क्षेत्र की चर्चा भी टॉप पर थी। हो क्यों न मप्र की विधानसभा के अध्यक्ष जो मनगवां के थे।
लीक से हटकर और नियमों से बंधकर काम
श्रीनिवास तिवारी विधानसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की अलग परिभाषा लिख रहे थे। लीक से हटकर और नियमों से बंधकर बेहतर काम करने वाले विधानसभा अध्यक्ष के रूप में श्रीनिवास तिवारी की ख्याति दूर-दूर तक यानी देश के सभी कोनों तक पहुंच चुकी थी। उन्होंने सरकार को विधानसभा अध्यक्ष के पद की गरिमा एवं महत्व बता दिया था। तिवारी यह सब इसलिए कर पाए क्योंकि वे राजनीति के साथ कानून के भी अच्छे ज्ञाता थे।
दादा के काम न आए हथकंडे
अब आया 2003 का वह चुनाव जिसने श्रीनिवास तिवारी की राजनीतिक सत्ता को उलट-पुलट दिया, जिसकी कल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी। इस चुनाव ने तिवारी को हांसिए पर पहुंचा दिया। चुनाव की गहमा-गहमी शुरू हो गई थी। प्रचार-प्रसार का दौर चल रहा था। श्री तिवारी के समर्थक इतने गुमान भरे थे कि यह नारा लगाने लगे थे कि दादा नहीं दऊ आंय, वोट न देवे तऊ आंय। दादा ने भी इस नारे को मौन सहमति दे दी थी। प्रतिद्वंदी के रूप में इस बार भी बीजेपी से कम्युनिष्ट नेता गिरीश गौतम ही थे। श्रीनिवास तिवारी और उनके समर्थकों ने इस चुनाव में भी सभी चुनावी हथकंडे अपनाए थे। यहां तक कि तिवनी के पास स्थित एक मकान में लगभग तेरह सौ मतदाता पंजीकृत थे, जिन्हें ऐन वक्त पर चुनाव आयोग ने मतदाता सूची से अलग किया था। लेकिन प्रतिद्वंदी गिरीश गौतम ने शालीनता को चुनावी हथियार बनाया। हालांकि गौतम के कार्यकर्ताओं ने भी इस बार नया नारा दिया था-दादा नहीं दाई है, इस बार विदाई है!
उस जीत को हम कभी नहीं भूल सकते
विधायक गिरीश गौतम बताते हैं कि चुनाव काफी कठिन था क्योंकि श्री तिवारी ने मनगवां के लिए काम किया था। जनता उनसे स्नेह भी करती थी। लेकिन मुझे उनके कार्यकर्ताओं की कार्य प्रणाली का लाभ मिला। और पिछले दस साल में मैने जो मेहनत की थी उसका सकारात्मक परिणाम सामने आया। 2003 के चुनाव की जब गणना हुई तो मुझे उम्मीद से अधिक 55751 मत मिले और वहीं श्रीनिवास तिवारी को 28821 वोट ही मिल पाए। इस प्रकार एक मझे और कामयाब नेता के विरूद्ध मेरी यह जीत राजनीति के कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। उस जीत को हम कभी नहीं भूल सकते। राजनीतिज्ञों का मानना है कि गिरीश गौतम की शालीन कार्यप्रणाली ही उनको इस मुकाम तक ले गई। अन्यथा श्रीनिवास तिवारी जैसे दिग्गज नेता को इतने भारी मतों के अंतर से हराना कोई मामूली बात नही हैं।
Published on:
30 Oct 2018 12:35 pm
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