ये वो कलाकार हैं जो पीढियों से अपनी कला को जीवित रखे हैं। परिवार का परिवार अपनी कला को जीता है। बस जरूरत है तो इन कलाकारों को प्रोत्साहन देने की। फिलवक्त देश की जो आर्थिक व्यवस्था है, उसमें ऐसे ही लोगों को प्रोत्साहित करने पर बल दिया जा रहा है। अर्थशास्त्रियों की मानें तो ये वो वर्ग है जिसे प्रोत्साहित कर उसकी जेब भरने से मार्केट बूम कर सकता है। संभवतः इसी सोच के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खिलौना उद्योग को बढ़ावा देने की बात कही है। दरअसल ये वो कुटीर उद्योग हैं जिनके बूम होने से बाजार में रौनक लौट सकती है।
रीवा का पेटेंट उद्योग बन गया है सुपारी खिलौना अब अगर रीवा के सुपारी के खिलौनों की बात करें तो इन खिलौनों ने शहर को नई पहचान दिलाई। इन कलाकारों की कलाकृतियों की पूरे देश व विदेशों में काफी मांग है। एक तरह से यह रीवा का पेटेंट उद्योग है। देश के अन्य स्थानो पर सुपारी पर ऐसी कलाकृति कम ही देखने को मिलती है। लेकिन रीवा का कुंदेर परिवार तीन पीढ़ियों से यह काम कर रहा है। इनका यह प्रमुख पेशा है।
कुंदेर परिवार 1942 से जुड़ा हैं इस कला से शहर के फोर्ट रोड में सुपारी से मूर्तियां और खिलौने बनाने वाले दुर्गेश कुंदेर तीसरी पीढ़ी के कलाकार हैं। वह बताते हैं कि 1942 में उनके दादा भगवानदीन कुंदेर ने सुपारी की सिंदूरदान बनाकर महाराजा गुलाब सिंह को गिफ्ट किया था। इसके पहले महाराजा के आदेश पर ही राज दरबार के लिए लच्छेदार सुपारी काटी जाती थी। महाराजा मार्तंड सिंह को छड़ी गिफ्ट की गई थी, जिस पर 51 रुपए का ईनाम मिला था। समय के साथ बाजार की मांग के अनुसार खिलौने बनाए जाने लगे। इन दिनों शहर का ऐसा कोई भी बड़ा कार्यक्रम नहीं होता जिसमें सुपारी की गणेश प्रतिमा गिफ्ट न की जाती हो। बाहर से आने वाले अतिथि को सुपारी के ही खिलौने दिए जाते हैं।
गणेश और लक्ष्मी प्रतिमा की ज्यादा डिमांड दुर्गेश के मुताबिक पहले सुपारी की स्टिक, मंदिर सेट, कंगारू सेट, टी-सेट, महिलाओं के गहने, लैंप आदि पर अधिक फोकस था लेकिन इन दिनों गणेश प्रतिमा ही सबसे अधिक लोकप्रिय हो रही है। दुर्गेश कुंदेर का कहना है कि लक्ष्मी जी की मूर्ति लोग गिफ्ट करने के लिए नहीं बल्कि अपने घरों में रखने के लिए लेते हैं। गिफ्ट करने के लिए गणेश प्रतिमा ही सबसे अधिक खरीदी जा रही है।
लोग अपनों को उपहार स्वरूप करते हैं भेंट लोग इन्हें खरीद कर ले जाते हैं और अपना ड्राइंग रूम सजाने के साथ ही अपने चाहने वालों को उपहार स्वरूप भेंट भी करते हैं। हां! ये जरूर है कि अगर कोई चाहे कि एक बार में ढेर सारे खिलौने खरीद ले तो वह थोड़ा मुश्किल है क्योंकि इसके लिए समय देना होता है। वैसे यह कारीगरी भी बहुत महीन होती है। अब सुपारी को एक आकृति देना आसान काम तो है नहीं। लिहाजा अगर किसी को ज्यादा खिलौने चाहिए तो कलाकारो को मोहलत देना पड़ता है। इंतजार करना पड़ता है। वैसे अब इसकी डिमांड सेलिब्रिटीज के बीच ज्यादा होने से पहले से ज्यादा खिलौने बनने लगे हैं।
रीवा राजघराने की मांग से जुड़ा है इस कलाकृति का इतिहास सुपारी के खिलौनों के निर्माण की कहानी भी रोचक है। स्थानीय लोगों द्वारा बताया जाता है कि इसकी शुरुआत रीवा राजघराने में सुपारी को पान के साथ इस्तेमाल करने के लिए अलग-अलग डिजाइन से कटवाने से हुई थी। राजघराने के मुताबिक डिजाइन बनाते-बनाते कलाकृतियां भी सामने आने लगीं।
बहुत प्रभावित हुई थीं इंदिरा गांधी, कलाकार को मिला था मान क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि 1968 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रीवा आई थीं। उस दौरान उन्हें सुपारी के खिलौने भेंट किए गए थे। रीवा से दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड आफ डायरेक्टर के पैनल में सुपारी के खिलौने बनाने वाले रामसिया कुंदेर को भी शामिल किया। कई बड़े कार्यक्रम में इंदिरा गांधी ने परिचय कराकर कलाकार का सम्मान भी बढ़ाया।