धर्म

दुनिया भर में प्रसिद्ध है देवभूमि की ये होली, यहां महिलाओं की होती है बैठकी तो पुरुष गाते हैं फाग

Kumaoni Khari Holi कुमाऊं की खड़ी होली

Mar 17, 2022 / 05:57 pm

दीपेश तिवारी

World famous kumouni holi

बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व होली, यूं तो पूरे देश में ही मनाई जाती है। लेकिन भारत में कुछ खास जगहों की होली विश्व प्रसिद्ध है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में यह एक विशेष अंदाज में मनाई जाती है। विश्व प्रसिद्ध बरसाने की होली की तरह ही एक अन्य क्षेत्र जहां की होली भी विश्व प्रसिद्ध मानी जाती है। यह विशेष क्षेत्र है देवभूमि उत्तराखंड का कुमाऊं—

होली को लेकर यहां विशेष प्रेम देखने को मिलता है, साथ ही यहां कि होली कई मायनों में विशेष होने के चलते विश्व प्रसिद्ध मानी जाती है। होली में फाग यहां की विशेषता है। देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा, नैनीताल,पिथौरागढ़, चम्पावत और बागेश्वर जिले आते हैं।

यहां की होली के प्रति क्षेत्रवासियों का इतना प्रेम है कि उन्होंने देश भर में कई जगह रच बस जाने के बावजूद अपनी सांस्कृतिक परंपरा को नहीं छोड़ा है। ऐसे में इस बार अभी कुछ ही दिनों में आने वाला होली का त्योहार इनके लिए अति विशेष है। दरअसल इस बार होली 17 मार्च की है, वहीं धुलेंडी 18 मार्च की रहेगी।

कुमाऊंनी हर जगह मनाते हैं ये पर्व…
वैसे तो देश में बरसाने सहित कई जगहों की होली काफी प्रसिद्ध हैं, लेकिन कुमाऊं की होली की सबसे खास बात इसकी सांस्कृतिक विशेषता है, जिसके चलते यह न केवल पूरे देश में बल्कि विश्व भर में जानी जाती है और अब ऐसा भी नहीं की ये होली केवल उत्तरांचल तक ही सीमित रह गई हो। बल्कि अब तो कुमाऊं के जो लोग अन्य जगहों पर बस गए हैं, वे भी इसे उसी अंदाज में मनाते हैं। ऐसे में देश के उन क्षेत्रों में इस होली की धूम देखने को आसानी से मिल जाती है, जहां कुमाऊंनी लोग बहुतायत में बसे हुए हैं।

दरअसल पहाड़ों में रोजगार के अभाव में कई लोग पहाड़ों से आकर देश के विभिन्न शहरों में कई सालों पहले बस चुके हैं, इसके बावजूद वे अपनी परम्पराओं को अब तक अपने साथ बांधे हुए हैं। इसी के चलते देश के तमाम शहरों में आज भी वे लोग जो कुमाऊं से आकर वहां बसे हैं। अपने कुमाऊंनी समाज के साथ कुमाऊं की होली के तर्ज पर होली मनाते है। फिर चाहे दिल्ली हो, लखनउ हो, जयपुर हो, भोपाल हो, फरिदाबाद या ग्वालियर या इंदौर या कोई ओर शहर।

कुमाउं की खड़ी होली:
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाया जाता है। दरअसल कुमाऊं में होली की चार विधाएं हैं – खड़ी होली, बैठकी होली, महिलाओं के होली, ठेठर और स्वांग।

खड़ी होली का अभ्यास आमतौर पर पटांगण (गांव के मुखिया के आंगन) में होता है। यह होली अर्ध-शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है जहां मुख्य होल्यार होली के मुखड़े को गाते हैं और बाकी होल्यार उसके चारों ओर एक बड़े घेरे में उस मुखड़े को दोहराते हैं। ढोल नगाड़े नरसिंग उसमें संगीत देते हैं। घेरे में कदमों को मिलाकर नृत्य भी चलता रहता है कुल मिलाकर यह एक अलग और स्थानीय शैली है।

जिसकी लय अलग-अलग घाटियों में अपनी अलग विशेषता और विभिन्नता लिए है। खड़ी होली ही सही मायनों में गांव की संस्कृति की प्रतीक है। यह आंवला एकादशी के दिन प्रधान के आंगन में अथवा मंदिर में चीर बंधन के साथ प्रारंभ होती है।

चतुर्दशी और पूर्णिमा के संधिकाल जबकि मैदानी क्षेत्र में होलिका का दहन किया जाता है यहां कुमाऊं अंचल के गांव में, गांव के सार्वजनिक स्थान में चीर दहन होता है। अगले दिन छलड़ी यानी गिले रंगो और पानी की होली के साथ होली संपन्न होती है।

हारमोनियम और तबला के साथ शास्त्रीय संगीत की विधा में बैठकर होली गायन की परंपरा अद्भुत है। स्थानीय परंपराओं में यहां हर शहर और गांव में दो-चार अद्भुत होल्यार हुए हैं। जो न केवल होली के गीत बनाते हैं बल्कि उसकी डायरी तैयार रखते हैं और इस शानदार परंपरा को रियाज के जरिए अगली पीढ़ी तक भी पहुंचाते हैं।

कुमाऊंनी होली के तहत महिलाएं होली के दिन बैठकी का आयोजन करती हैं जिसमें अधिकांशत: समाज के लोग ही हिस्सा लेते हैं। देश के कई शहरों में जहां कुमाउनी बहुतायत में हैं इनका आयोजन होता है। इस दौरान यहां होली का गायन शास्त्रीय धुन पर आधारित रहता है।

कुमाऊं में होली की शुरुआत-
कुमाऊं में होली की शुरुआत बसंत के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं।

बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है और
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´
व झिंझोटी राग में
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में…´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´
आदि होली के रूप में गाए जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे `शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´ व `सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं।
सामान्यत: खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं।

कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्पराएं-
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपराएं हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है।

होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है।

इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा…सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो…´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं।

कुमाऊं में `चीर’ को ले जाने का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है।

बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से शुरू कर सबसे छोटे पुरुष सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस…हो हो होलक रे…´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

ऐसे समझें पूरी परंपरा
होली का त्यौहार रंगों का त्यौहार है, धूम का त्यौहार है, लेकिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में होली रंगो के साथ-साथ रागों के संगम का त्यौहार है। इसे अनूठी होली कहना भी गलत नहीं होगी, क्योंकि यहां होली सिर्फ रंगो से ही नहीं, बल्कि रागों से भी खेली जाती है।

पौष माह के पहले सप्ताह से ही और वसंत पंचमी के दिन से ही गांवों में बैठकी होली का दौर शुरु हो जाता है। इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है।

होल्यार हारमोनियम, तबला और हुड़के की थाप पर भक्तिमय होलियों से बैठकी होली शुरु करते हैं। इन होलियों को शास्त्रीय रागों पर गाया जाता है, जिनमें दादरा और ठुमरी ज्यादा प्रचलित है।
अधिकतर बैठकी होलियों में राग धमार से होली का आह्वान किया जाता है तथा राग श्याम कल्याण से होली की शुरुआत की जाती है, बीच में समयानुसार अन्य रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं और इसका समापन राग भैरवी से किया जाता है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की बैठकी होली भी बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें महिलाओं के स्वभावानुसार श्रॄंगार रस की अधिकता होती है।

बैठकी होली कुमाऊं के लोक संगीत में रची बसी होने के बाद भी इसकी भाषा ब्रज की है, सभी बंदिशें राग-रागिनियों पर गाई जाती हैं। यह खांटी शास्त्रीय गायन तो है, लेकिन इसे गाने का ढब भी थोड़ा अलग है। क्योंकि इसे समूह में गाया जाता है, लेकिन इसे सामूहिक गायन भी नहीं कहा जा सकता और न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में बैठा कोई भी व्यक्ति बंदिश गा सकता है, जिसे भाग लगाना कहा जाता है।

यानि बैठकी होली में शामिल हर व्यक्ति श्रोता भी खुद है और होल्यार भी खुद है। बैठकी होली पौष माह के प्रारम्भ से शुरु हो जाती हैे।
कुमाँऊ में हो या वहां से बाहर होलियार होली की शुरूआत ज्यादातर जिस होली से करते हैं वो है ‘सिद्धि को दाता, विघ्न विनाशन, होली खेलें गिरिजापति नंदन’।
वहीं इसके अलावा-
जल कैसे भरूं जमुना गहरी -2
ठाडी भरूं राजा राम जी देखें
बैठी भरूं भीजे चुनरी
जल कैसे…
जैसे गीत गाए जाते हैं जिनके स्वर अचानक ऊपर व नीचे आ जाते हैं।


कुमाऊंनी होली को ऐसे समझें…
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध एवं सजग माने जाने वाले अल्मोड़ा में तो सांझ ढलते ही होल्यारों की महफिलें सज जाती हैं। इसमें हर उम्र के लोग शामिल होते हैं। युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गूंजते गानों में सराबोर देखा जा सकता है।
लगभग यही दशा कुमाऊं मंडल के अधिकांश क्षेत्रों की होती है। नैनीताल और चंपावत में तबले की थाप, मंजीरे की खनखन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ गाते हैं, तो सभी झूम उठते हैं।
तिहाई पूरा होते ही लगता है कि राग-विहाग की ख़ूबसूरत बंदिश ख़त्म हो गई है, लेकिन तभी होली में भाग लगाने वाले होल्यारों के मुक्त कंठ से भाग लगाते ही तबले पर चांचर का ठेका अभी शुरू नहीं हुआ कि ‘होरी’ फिर से शबाब पर लौट आती है।

देवभूमि उत्तराखंड में न केवल होली का रंग बल्कि रामलीला, दिवाली जैसे त्यौहार भी बड़ी संजीदगी और पारंपरिक रूप से मनाए जाते हैं और यह कस्बे हमारी संस्कृति के मुख्य केंद्र है। यहां पर घर-घर में महिलाएं बैठकी होली, खड़ी होली, संगीत होली मनाती हैं। महिलाएं तरह-तरह के स्वांग रचकर हंसी ठिठोली करती हैं। होली के त्योहार को होली के शुरू होने से एक महीने पहले से और होली के खत्म होने के एक महीने बाद तक मनाया जाता है।

इसके तहत महिलाएं होली के दिन बैठकी का आयोजन करती हैं जिसमें अधिकांशत: समाज के लोग ही हिस्सा लेते हैं। वहीं भोपाल के कोलार क्षेत्र में रहने वाले कुमाउनी के अलावा अन्य कई कॉलोनियों में जहां ये बहुतायत में हैं इनका आयोजन होता है। इस दौरान यहां होली का गायन शास्त्रीय धुन पर आधारित रहता है।

बैठकी में होली की उमंग-
यह खासतौर से कद्रदान और कलाकार दोनों का मंच है। कहा जाता है कि इस लोक विधा ने हिन्दुस्तानी संगीत को समृद्ध करने के साथ-साथ एक नई समझ भी दी है। कुमाऊंनी होली के मुख्या दो रूप प्रचलित हैं-बैठकी होली और खड़ी होली।

बैठकी होली यहां पौष माह से शुरू होकर फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक बसंत, पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं। इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ सभी रस मिलते हैं।इस होली में वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति रस एक साथ मौजूद हैं।

होली के अवसर पर गीत-संगीत की सजती महफ़िल-
खड़ी होली दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाई जाती है। तो रात में यही होली बैठकर गाई जाती है।
शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गांव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है।
कहा जाता है किे आधुनिक दौर में जब परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है तो वहीं कुमाऊं अंचल की होली में मौजूद परंपरा और शास्त्रीय राग-रागनियों में डूबी होली को आमजन की होली बनता देख सुकून दिलाता है। होली का त्यौहार रंगों का त्यौहार है,धूम का त्यौहार है। लेकिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में होली रंगो के साथ-साथ रागों के संगम का त्यौहार है।

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