इस कारण इसे भिटौली का महीना भी कहते हैं। इस महीने भाई अपनी बहन या पिता अपनी पुत्री को भिटौली देते हैं। भिटौली का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से है, जिसके तहत चैत्र के महीने में विवाहित बेटियों को मायके की ओर से भिटौली में पकवान के रूप में पूरी, हलवा, खीर, खजूरे, पुए, बढ़े, गुड़, मिश्री, मिठाई आदि दिए जाते हैं। पकवान के साथ वस्त्रों में साड़ी, ब्लाउज व रुमाल आदि मुख्य तौर पर दिये जाते हैं। मायके वालों में सामर्थ्य हो तो उनके द्वारा आभूषण भी दिए जाते हैं। भिटौली आमतौर पर पिता, भाई ही लेकर जाते हैं। भिटौली के रूप में मायके से आये पकवानों को बहन, बेटियां अपने ससुराल के हर घर में बांटती है।
यहां ये जान लेना अति आवश्यक है कि भिटौली की परम्परा को लेकर कुमाऊं में अनेक लोककथाएं प्रचलन में हैं। पहले विवाहित बेटी का हाल-चाल जानने के लिये लोगों को काफी दूर तक पैदल चलना पड़ता था। कई बार तो सालों तक कोई भी खोज-खबर नहीं मिलती थी।
भिटौली की परम्परा के बारे में देव भूमि उत्तराखंड के कुमाऊं में कई लोक कथाएं प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक लोक कथा के अनुसार सैकड़ों वर्ष पहले एक गांव में एक महिला रहती थी। उसके पति की मौत हो चुकी थी और उसका पुत्र काफी छोटा था। ऐसे में उसकी लड़की का दूर के गांव में विवाह हो गया। विवाह के बाद कई वर्षों तक लड़की के मायके से कोई भी उसकी खोज-खबर लेने नहीं गया। लड़के के बड़े होने पर एक दिन उसकी मां ने बताया कि उसकी दीदी का विवाह काफी दूर हुआ है और शादी के बाद हम उसकी खोज-खबर लेने भी नहीं जा सके, पता नहीं वह किस हाल में होगी? बीते वर्षों में कितने तीज-त्यौहार गए पर कभी भी उसे न तो मायके बुला सके और न ही उसके ससुराल ही जा सके। इतना कहते ही बेटी की याद में मां रोने लगी।
मां ने बेटे को रास्ते में जंगली जानवरों से मुकाबला करने के लिए एक मजबूत डंडा भी दिया और एक बार पुन: सख्त हिदायत देते हुए कहा कि समय से घर लौट आना। वह लड़का सवेरे-सवेरे अपनी दीदी से मिलने के लिए चल दिया। रास्ते भर चलते हुए वह अपनी दीदी के ख्यालों में खोया रहा और सोचता रहा कि उसकी दीदी कैसी दिखती होगी? उसका घर कैसा होगा? वह कैसे रहती होगी? वह उसे पहचानेगी कि नहीं? वह उससे कैसे बात करेगी? जब उसे पता चलेगा कि उसका छोटा सा भाई अब इतना बड़ा हो गया है तो वह उसे कितना लाड़ करेगी? इसी तरह के कई विचार व सवाल उसके मन में आ जा रहे थे। यह सब सोचते- सोचते वह दोपहर के समय तक अपनी दीदी के घर पहुंच गया।
उसने वहां पहुंचकर देखा कि उसकी दीदी के घर तो सन्नाटा पसरा हुआ है। उसने कुछ देर तक इधर-उधर देखा। उसे कोई नहीं दिखाई दिया। जब उसे कोई नहीं दिखाई दिया तो उसने जोर-जोर से “दीदी, ओ दीदी” कहते हुए अपनी दीदी को आवाज लगाई पर उसके बाद भी वहां कोई हलचल नहीं हुई और न कोई घर से बाहर ही निकला। घर का दरवाजा खुला हुआ था, ऐसे में वह लड़का थोड़ा सहमते हुए घर के अन्दर गया। वहां जाकर देखता है कि उसकी दीदी तो गहरी नींद में सोई हुई है। वह खेत से काम करने के बाद घर लौटी तो थकान से चूर होकर यूं ही थोड़ा आराम करने के लिए लेटते ही उसे गहरी नींद आ गई। अपनी दीदी को गहरी नींद में देखकर उस लड़के ने उसे उठाना उचित नहीं समझा। उसने समझ लिया कि उसकी दीदी खेत में काम करने के बाद थक कर सोई हुई है।
उसने सोचा कि थोड़ी देर में जब उसकी दीदी की थकान दूर हो जाएगी तो वह अपने आप ही उठ जाएगी। यह सोचकर उसने अपनी दीदी के सिरहाने पकवानों की पोटली (भिटौली) रखी और उसके उठने का इंतजार करने लगा। इंतजार करते-करते दोपहर भी ढलने को आ गई पर उसकी दीदी की नींद नहीं खुली। वह न जाने कैसे गहरी नींद में सोई रही। अब उस लड़के को बैचेनी भी होने लगी, क्योंकि उसकी मां ने कहा था कि समय से घर को लौट आना।
दीदी के ससुराल में नहीं रहना है, उधर उसकी बहन भी इसी समय सपने में अपने भाई को देख रही थी कि वह उससे मिलने के लिए आया है और साथ में भिटौली भी लाया है। जब दोपहर ढलने के बाद भी उसकी नींद नहीं खुली तो भारी मन से लड़के ने बिना अपनी दीदी से मिले ही घर वापस लौटने का निर्णय किया। वह भारी मन से भिटौली की पोटली अपनी दीदी के सिरहाने ही छोड़कर घर वापस लौट गया। उसके मन में यह कसक रह गई कि इतने साल बाद दीदी से मिलने के लिए आने के पर भी वह उससे नहीं मिल पाया।
उधर, जब सूरज ढलने लगा, तो अपने घौंसलों को लौट रही चिड़ियों की चहचहाहट से उस विवाहिता लड़की (लड़के की दीदी) की आंखें खुल गई। जब उसकी आंख खुली तो उसने सिरहाने में रखी पोटली देखी। उसे खोला तो उसमें कई तरह के पकवानों के साथ एक नई धोती भी थी। उसे अपना सपना सच होता हुआ महसूस हुआ।
भाई से मिलने की आस में उसने पहले घर के अन्दर उसे ढूंढा। जब वह नहीं मिला तो वह घर के बाहर निकली और उसे चारों ओर देखने लगी। पर उसका भाई कहीं नहीं दिखाई दिया। उसने सोचा कि शायद उसे सोता हुआ देखकर वह खेतों की ओर न चला गया हो। उसने अपने भाई को जोर-जोर से आवाज लगाई, पर वह कहां से आता? वह तो अपनी दीदी से बिना मिले ही निराश होकर घर वापस लौट चुका था।
काफी देर तक आवाज लगाने के बाद भी जब भाई कहीं नहीं दिखाई दिया तो वह लड़की जोर-जोर से रोने लगी। उसके रोने की आवाज सुनकर गांव के लोग उसके घर की ओर दौड़ पड़े, यह सोचकर कि पता नहीं उस पर क्या मुसीबत आ गई है। गांव वाले जब उसके घर पहुंचे तो उससे पूछने लगे कि वह क्यों रो रही है? उसे क्या हुआ है? उसने जोर-जोर से रोते हुए कहा,”भै भुको, मैं सिती”, “भै भुको,मैं सिती” (भाई भुखा ही रहा और मैं सोती रही)। ऐसा कहते-कहते और जोर-जोर से रोते हुए उसने अपने घर के आंगन में प्राण त्याग दिए। वह लड़का अपनी दीदी से मिलने के लिए चैत्र के महीने ही गया था। बाद में गांव वालों व दूसरे लोगों को जब वास्तविकता का पता चला तो उन्हें बहुत ही दुख हुआ। कहते हैं कि उसके बाद ही हर साल चैत्र के महीने में विवाहित बहन व बेटियों को भिटौली देने की परम्परा की शुरुआत हुई, ताकि इसी बहाने मायके वाले दूर-दराज बिहाई गई बहन-बेटियों की कम से कम साल में एक बार तो खोज-खबर ले सकें और उनके लिए भिटौली भी लाएं।
चैत्र के महीने में भिटौली की परम्परा के शुरू होने से साल में एक बार जहां बहन-बेटी के हाल-चाल मिलने के साथ ही उससे मुलाकात भी हो जाती थी। यह परम्परा भाई-बहन के आपसी प्रेम व अपनत्व को भी प्रदर्शित करती है। बाद में इसने एक सांस्कृतिक परम्परा का रूप ले लिया। जो आज कुमाऊं की एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बन गया है।
चैत्र का महीना लगते ही सास हो चाहे बहू हर उम्र की महिला को भिटौली का इंतजार रहता है। जब तक भिटौली नहीं आती तब तक महिलाएं घुघुती नामक पक्षी से न बासने (बोलने) की विनती इस लोकगीत को गाकर करती हैं – “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मैंकैं मैत की”।
चैत्र का महीना विवाहित बेटियों की भिटौली का होने के कारण ही इस महीने कुमाऊं में विवाह नहीं होते हैं। जिन लड़कियों का विवाह चैत्र का महीना लगने से पहले हो जाता है, उनकी पहली भिटौली फागुन के महीने में ही दे दी जाती है, क्योंकि विवाह के बाद पड़ने वाले पहले चैत्र के महीने बेटियां मायके में ही रहती हैं। वैसे नव विवाहित बेटी को पहली भिटौली उसकी शादी के दूसरे दिन दुरगूण के समय भी दी जाती है। यदि दुर्भाग्यवश बेटी व बहन के पति की मौत हो जाए तो उनके पति की मौत के बाद जो पहली भिटौली मायके की ओर से दी जाती है, उसमें कपड़े नहीं दिए जाते। केवल फल व पकवान भिटौली में देते हैं। उसके बाद हर साल पूरी भिटौली साड़ी, ब्लाउज व रुमाल सहित दी जाती है।
पिता व भाई की मौत होने के बाद भी मायके से ईजा (मां), भद्यो (भाई के बेटे), बौजी (भाभी) आदि भिटौली देने की परम्परा का निर्वाह करते हैं और बहन व बेटी के अलावा बुआ को भी अपने भद्यो की ओर से भिटौली मिलती रहती है। जिन परिवारों में एक से अधिक भाई होते हैं और उन सब के परिवारों में से अगर किसी भाई के बेटी नहीं होती तो वह अपने दूसरे भाई की बेटियों को भिटौली देते हैं। भिटौली देने के लिए भी मंगलवार, बृहस्पतिवार व शनिवार को नहीं जाते हैं। वहीं कुछ जगहों पर सोमवार के दिन भी नहीं जाते हैं।
रोजगार के लिए पलायन होने से अब इसके स्वरूप में भी बदलाव आने लगा है। मायके से काफी दूर महानगरों में अपने पतियों के साथ रहने वाली बेटियों को अब भिटौली के रूप में रुपए भेज दिए जाते हैं। गांवों में व नजदीक रहने वाली बेटियों को जरूर आज भी भिटौली देने के लिए पिता, भाई, चाचा, ताऊ जाते हैं। परिवार में पुरुषों के बाहर होने के कारण कई मामलों में तो अब ईजा भी भिटौली देने जाने लगी हैं।
भाई और बहन के संबंधों पर आधारित यह त्यौहार सोर घाटी में बड़े जोश से मनाया जाता हैं। पिथौरागढ़ में यह यह देव डोला घुनसेरा गांव, बिण, चैंसर, जाखनी, कुमौड़, मुख्यालय स्थित घंटाकरण के शिव मंदिर लाया जाता है।
यहां से यह डोला 22 गांवों में अपनी 22 बहिनों से मिलने जाता है। कहा जाता है कि सोर घाटी में शिव की 22 बहिनें देवी के अवतार में रहती हैं।
चैत्र के महीने में भगवान शिव अपनी इन बहिनों से मिलने उनके घर जाते हैं। माना जाता है कि यह डोला जिस जिस गांव से होकर जाता है, वहां किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा नहीं आती है। इस पर्व को अच्छी फसल की कामना के लिए भी मनाया जाता है।
यह भी मान्यता है कि जिन गांवों में छात भगवती भेंटने आती है उन गांवों में होली का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। ऐसे में सोर घाटी के कई गांवों में आज भी होली का रंग नहीं पड़ता है।