महेश नवमी पर कैसे करें पूजा
1. ज्येष्ठ शुक्ल नवमी यानी महेश नवमी तिथि के दिन सुबह उठकर स्नान ध्यान करें।
2. इसके बाद मंदिर में जाकर शिवलिंग की पूजा करें या घर में शिव परिवार की पूजा कर आशीर्वाद लें।
3. महेश नवमी के दिन भगवान भोलेनाथ की पूजा में उन्हें चंदन, भस्म, पुष्प, अक्षत मिश्रित गंगाजल, मौसमी फल और बेलपत्र अर्पित करना चाहिए।
4. इस दिन भक्त के लिए शिव आराधना करते समय डमरू बजाने का विधान है।
1. ज्येष्ठ शुक्ल नवमी यानी महेश नवमी तिथि के दिन सुबह उठकर स्नान ध्यान करें।
2. इसके बाद मंदिर में जाकर शिवलिंग की पूजा करें या घर में शिव परिवार की पूजा कर आशीर्वाद लें।
3. महेश नवमी के दिन भगवान भोलेनाथ की पूजा में उन्हें चंदन, भस्म, पुष्प, अक्षत मिश्रित गंगाजल, मौसमी फल और बेलपत्र अर्पित करना चाहिए।
4. इस दिन भक्त के लिए शिव आराधना करते समय डमरू बजाने का विधान है।
5. साथ ही आदिशक्ति पार्वती का विशेष ध्यान और पूजन किया जाता है।
6. महेश नवमी के दिन महादेव को पीतल का त्रिशूल चढ़ाना अच्छा माना जाता है।
7. भगवान भोलेनाथ की पूजा और अभिषेक करते वक्त मंत्रों का जाप करते रहना चाहिए।
8. इसके बाद महेश नवमी की कथा सुनें और भगवान का ध्यान करते हुए मन ही मन उनके नाम का जाप करते रहें।
महेश नवमी पर जीवन संवारने वाले शिव मंत्रः प्रयागराज के आचार्य प्रदीप पाण्डेय के अनुसार महेश नवमी के दिन भगवान के मंत्र का जप करने से पहले शिवजी को बेलपत्र अर्पित करना चाहिए और संभव हो तो गंगाजल अर्पित करें। इसके बाद पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके इनमें से किसी मंत्र का 108 बार जप करें।
1. इं क्षं मं औं अं
2. नमो नीलकंठाय
3. प्रौं ह्रीं ठः
4. ऊर्ध्व भू फट्
5. ऊं नमः शिवाय
6. ऊं पार्वतीपतये नमः
7. ऊं ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय
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कल्याणकारी महेश नवमी की कथा
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन काल में खडगलसेन नाम के राजा राज्य करते थे। राजा धर्मात्मा थे, और प्रजा की अच्छे ढंग से सेवा करते थे। इसके चलते प्रजा भी प्रसन्न थी। राजा और प्रजा अपने धर्म का विधिवत पालन कर रहे थे, लेकिन संतान न होने का राजा को दुख था।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन काल में खडगलसेन नाम के राजा राज्य करते थे। राजा धर्मात्मा थे, और प्रजा की अच्छे ढंग से सेवा करते थे। इसके चलते प्रजा भी प्रसन्न थी। राजा और प्रजा अपने धर्म का विधिवत पालन कर रहे थे, लेकिन संतान न होने का राजा को दुख था।
इस दुख के निवारण के लिए राजा ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया। इस दौरान ऋषि-मुनियों ने राजा को वीर और पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया, लेकिन इस दौरान यह भी कहा कि 20 वर्ष तक पुत्र को उत्तर दिशा में जाने न देना। इस यज्ञ के नौवें महीने में राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। राजा ने समारोह पूर्वक पुत्र का नामकरण संस्कार पूरा कराया और सुजान कंवर नाम रखा। जल्द ही राजकुमार समस्त विद्याओं में निपुण हो गया।
एक दिन एक जैन मुनि उस नगर में आए। उनके धर्मोपदेश को कुंवर सुजान ने भी सुना और प्रभावित हो गए। उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ले ली और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। धीरे-धीरे नगर में लोगों की जैन धर्म के प्रति आस्था बढ़ने लगी। स्थान-स्थान पर जैन मंदिरों का निर्माण होने लगा।
इधर, एक दिन कुंवर सुजान वन चले गए और अचानक ही उत्तर दिशा की ओर मुड़ गए। सैनिकों के मना करने पर भी वे नहीं माने। उत्तर दिशा में एक सूर्य कुंड के पास कई ऋषि यज्ञ कर रहे थे। इसे देखकर राजकुमार को क्रोध आ गया और राजकुमार बोले- मुझे अंधरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने देते थे। इसके बाद कुंवर सुजान ने सैनिकों से यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करा दिया। सुजान के कृत्य से ऋषि भी क्रोधित हो गए और सभी को शाप देकर पत्थर बना दिया।
राजा को घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने प्राण त्याग दिए और उनकी रानियां सती हो गईं। इधर, राजकुमार सुजान की पत्नी चन्द्रावती सभी सैनिकों की पत्नियों को लेकर ऋषियों के पास गईं और क्षमा-याचना करने लगीं। ऋषियों ने कहा कि हमारा शाप विफल नहीं हो सकता लेकिन भगवान भोलेनाथ और मां पार्वती की आराधना करो, वो कुछ उपाय निकालेंगे।
इस पर सभी ने सच्चे मन से भगवान की प्रार्थना की और भगवान महेश और मां पार्वती से अखंड सौभाग्यवती, पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। चन्द्रावती और सैनिकों की पत्नियों ने अपने पतियों को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर महादेव ने सभी को जीवन दान दे दिया। इसके बाद भगवान भोलेनाथ की आज्ञा से ही माहेश्वरी समाज के पूर्वजों ने क्षत्रिय कर्म छोड़ दिया और वैश्य कर्म अपना लिया। तभी से यह समाज माहेश्वरी समाज कहा जाने लगा।